Sunday, September 7, 2014

गजल-३१० 

गजलकेँ गीत कहि देता
अनर्गल प्रीत कहि देता 

दिगरकेँ फूसि आ अनढन
अपनकेँ जीत कहि देता 

हुनक नै ठीक थिक किछुओ
कथीकेँ तीत कहि देता 

चलत जे संगमे तकरे 
रमनगर गीत कहि देता 

ई मैथील श्रेष्ठ छथि बाबू
हमहिँ टा हीत कहि देता

लिबेबै माथ तखने टा
अहाँ नवनीत कहि देता

करब राजीव किछु नवका
तँ बुरि छी मीत कहि देता 

१२२ २१ २२२
©राजीव रंजन मिश्र

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