Saturday, June 14, 2014

 गजल-२५५ 

घाव तँ समयकँ संग भरि जाइ छैक
बात धरि बेहिसाब गड़ि जाइ छैक 

लाभ की यौ खराप गोए कँ
जे गलत से जनाब सड़ि जाइ छैक

नेह दै छैक लोककेँ छाँह
लोक धरि नेह पाबि मरि जाइ छैक

के बुझलकै ग' बात ई सोझ साझ
जे हियाकेँ जरैब परि जाइ छैक

संग रहलै दुआँ गरीबक तखन तँ
काल राजीव ऐल टरि जाइ छैक

२१२ २१२१ २२१२१ 
© राजीव रंजन मिश्र

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