Saturday, June 28, 2014

गजल-२६३ 

जखन जखन अपनासँ कहा सुनी भेल
हिया हमर उठि ठाढ सरासरी भेल

कहल अपन ओ आइ बिसरि रहल फेर
कटा छँटा नह केश नवाब जी भेल

मुहाँमुहीँ नै हैत मुदा कहत लोक
समाजमे दिन राति खुशामदी भेल

बऱी गजबकेँ खेल चलल नगर गाम
अनेरकेँ जंजाल बुढाबुढी भेल

हजार गप राजीव सुनब गँ ऐ ठाम
उतेढ जे किछु बाउ कनीमनी भेल

1212 221 1212 21 
@ राजीव रंजन मिश्र 

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