Monday, June 23, 2014

गजल-२५९ 

जिनगी बनल तराजू आ लोक बटखऱा छै
ऐ कात छी पड़ल हम चहुँ कात सभ जमा छै

आवेग मोनकेँ ई के देखि सुनि कँ बुझतै
सभकेँ तँ लागि रहलै सभ बात मसखरा छै

सभदिनसँ छी निमाहब यारी बऱी कठिन धरि
तन्नुक हिया तँ हारल आ गेल चरमरा छै

ककरा कहब कथी जे आ दोष देब कोना
अपने मिजाज तुरछल ई देल जे दगा छै

राजीव आइ फेरो छी लोहछल कचोटे
क्यौ आबि जे बुझा दित ई कोन बचपना छै

2212 122 221 2122
@ राजीव रंजन मिश्र 

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