Thursday, March 6, 2014

गजल-१९२ 

जिनगी जतरा आ जगत धर्मशाला छै
दैवक हाथक ई लिखल वर्णमाला छै

बुझलक लोकक दुख अपन दर्द सन जे से
आजुक दुनियामे मनुख मर्म बाला छै

देखल बेसी काल ई बात सभतरि जे
लोकक अपने टा हियक दर्द हाला छै

आजुक दिनमे जे टका चारि टा आनल
लोकक खातिर से बनल धर्म आला छै 

जखने ताकब काजकेँ बेरमे ककरो
लागत सभकेँ मारने सर्द पाला छै

बुधियारी राजीव ई मानि चलबामे
जीतल सभदिन टा सचर कर्म बाला छै 

2222 212 21222
@ राजीव रंजन मिश्र 

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