Friday, February 28, 2014

गजल-१९१ 

बसंतक ई मौसमकेँ सभटा छी अजगुत
दिमागोकेँ रंगत आ ललसा छी अजगुत 

चलल बाटे घाटे आ सुख दुख देखौलक
बेसाहल ई जीवनकेँ जतरा छी अजगुत 

अपन किछु बेगरते टा मोजर आ मसरफ
बड़ी मारूक औ ई गुन नबका छी अजगुत

सबेरे जे कहलक छी संगेमे हमहूँ
तकर भरिदिनकेँ बाबू चरजा छी अजगुत

बुझत नै ई गप क्यौ से देखल राजीवक
निरर्थककेँ अपनेमे रगड़ा छी अजगुत

१२२ २२२२ २२२२२ 
@ राजीव रंजन मिश्र 

No comments:

Post a Comment