Thursday, February 28, 2013

गजल-३५ 
बातक सभटा यौ बाबू हिसाब होइ छै
पाइन राखल तौँ बातक लेहाज होइ छै

आइन मरदक तौँ बड पैघ बात सदिखन 
जिनगी सबहक ने खूजल किताब होइ छै

बाजल फटफट आ करनी गड़बड़ रहल जौँ
जानब सभदिन ओ दुरि बेहिसाब होइ छै 

जगती नखतो ने छूटल करमक पहुँचसँ
वीरतँ सभ दिनका फूजल जहाज होइ छै

"राजीव"सुनू ने लोकक चलैत बाट मे
मोने सुच्चा सभ कष्टक इलाज होइ छै

२२२२२+२२१२१+२१२
२२२२ +२२२ +१२१२१२ 

@ राजीव रंजन मिश्र 

Wednesday, February 27, 2013

गजल-३३

बुझि पऱल जे धुआँ उठल अहिठाँ
सुझि रहल के घिना रहल अहिठाँ

सुनि सकल ने मधुर गीत कोनो
फुकि चलल जे नुका छिपल अहिठाँ

फ़ुसि भखय आ अपन भरय सदिखन
सुधि रहल ने लुटा मरल अहिठाँ

झुकि खसल ने नजरि मुनल कखनो
उठि चलल जे जुआ जितल अहिठाँ

खुलिकँ "राजीव"ई कहब हरदम
मुँह देखल आ हवा बहल अहिठाँ

२१२२ १२२  १२२
@ राजीव रंजन मिश्र


Sunday, February 24, 2013

गजल ३२

जिनगी आइ कनेलक फेरसँ हमरा
भभकी मारि दुखेलक फेरसँ हमरा

जखने बीति चलै दिन ने किछु सुनलक
बिढ़नी काटि सतेलक फेरसँ हमरा

सभछै खेल कपारक मानल हमहूँ
बिधना नाच नचेलक फेरसँ हमरा

करनी मानि करय छी करतब हम धरि 
सभतरि लोक डरेलक फेरसँ हमरा

किछु "राजीव" जहन मोनसँ सोचल 
बुझना गेल झमेलक फेरसँ हमरा

मात्रा क्रम: 2221+1222+222

@ राजीव रंजन मिश्र

Saturday, February 16, 2013

गजल -३१

ऐल बसन्त जागल जगती यौ
भेल दिगन्त मातल धरनी यौ

लोक धरथि नब नब रंग रूप
चालि सारंग धारल रमणी यौ

रौद हँसति खल खल मिठगर
फूल फलक लौटल रंगती यौ

मंद सुगन्ध पवन बह निर्मल
गाबि उठल सोहर परती यौ

रूप प्रकृति "राजीव" सजलछै
बदलल ने कनिको करनी यौ

@ राजीव रंजन मिश्र
अपने लोकनिक सोझा परैस रहल छी एक गोट गोपी-उद्धव संवादक गीत,अपने लोकनिक स्नेहाकांक्षी रहब। हार्दिक आनुरोध जे ज्ञानी-गुणी जन अपन विचार आ सलाह दए हमरा कृतार्थ करी :

जो रे जो तौं दूर पवनमा,किछु ने नीक लगैय्या!
माधव संग हम नेह लगाकँ,लेलहुं कोन बलैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .......

कोयलिक कुहकब टीस जगाबै,राग रागिनी मोन अकुलाबै
बुझि सकल ने हम जुल्मीकँ,आब करब की हम गे दैय्या !
माधव संग हम नेह लगाकँ .......

खनहिं मोनकँ हम बुझाबी,घुरि औता ओ आस लगाबी!
ईयाद पड़त हुनका फेरोसँ,यमुना तीर कदम्बकँ छैय्यां!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .......

राग रागिनी जुटल बसन्तक,निधिवन सुन्नर खूब सजल अछि!
शीतल मंद पवन बहै मारुक,बिहुसि रहल अछि ओ बिहुसैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .......

कोयल कुहकि रहल मधुबन मे,मयूर मगनभ' नाचि रहल अछि
भँवरा रभसि रहल फूल पर,सिसकि रहल शीतल पुरवैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ ........

हे सखि!आह कहब हम ककरा,मोनक पीड़ सुनाएब ककरा!
हारल नैना बाट जोहि जोहि,ऐला ने कृष्ण कन्हैया!
माधव संग हम नेह लगाकँ .......

उद्धव तोहँ कहब हम काह,दैव कोना कैला अधलाह!
बिनु करिया ने मोन लगैत अछि,जीवन कष्टक बनल तलैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .....

जाह जाह तौं उधो जाह,पांति पांतिक' दिहक सुनाह!
हमरा कांटक सेज सुताकँ,लेला अपने फूलक शैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .....

हम ने तंग करब तोहे माधब,पर तोरा बिनु कोना निमाहब!
हम एनाहिते रहब निठोहर,सिनेहक ने थिक क्यौ सुनबैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .......

छोऱि गैला जे ब्रज यदुनन्दन,कैला "राजीव" दारुण क्रन्दन!
मुदा बुझी अहि बातकँ उद्धव,माधब सगरो जग रखवैय्या!!
माधव संग हम नेह लगाकँ .......


@ राजीव रंजन मिश्र 

Friday, February 15, 2013


नजर से जब नजर मिल जाय तो फिर शुरुआत होती है 
जिगर से गर जिगर मिल जाय तो फिर बात होती है 

समां रंगीन हो पुरकश और जवाँ दिलकश नजारें हों  
बेकाबू तभी तो यक़ीनन जालिम जज्बात होती है 

किसी को क्या खबर थी कि चांदनी रातों की किरणों में  
नहाकर पाकीजगी से हुस्न खुद एक कायनात होती है 

जुबां खामोश हो और धड़कने सिफारिश कर रही होती 
तभी तो यार दिन के उजाले में मुकम्मल रात होती है 

किसी के इश्क में हम गहराई से ही डूब कर "राजीव"
पता चलता हैं कि क्या भला रौनक-ए- हयात होती है 

राजीव रंजन मिश्र 


चेहरा तेरा ऐ हुस्नपरी खिलता गुलाब सा
मुखड़ा तेरा ऐ गुलबदन ज्यों आफताब सा

रोशन तेरे ही हुस्न से होती है कायनात
चाँद रात में खिले उस माहताब सा

कैसे जिये भला कोई सहकर जुदाई  तेरी
तेरा नशा ऐ दिलरूबा छलकता शराब सा 

तसव्वुर से तेरे ऐ नाजनीं,बजती है घंटियाँ
मदहोशी है तेरे होने की एक लाजवाब सा 

तबस्सुम तेरे लबों की ढा जाय यूँ कहर
जीवन लगे है "राजीव" हसींन ख्वाब सा 
राजीव रंजन मिश्र
तसव्वुर
खयाल, विचार, याद
  


बहैत पाइनकँ तेज़ धार सन
थम्हय कखनहुँ ने ई जीवन
बुद्धि विवेक सुन्नर करनीसँ
दमकै निसि वासर ई जीवन
हारल नटुआ झिटका बिछै
जितलाहा लेल अभरन की
चलैत रहबटा थिक कबिलती
बिलमि गेलहुँ फेर जीवन की


राइत दिन आ दुपहरिया की
जगती पर वीर बटोहिक लेल
उतंग शिखर की रोड़ा बनलै
जिवटसँ भरल आरोहिक लेल
जौं ठानि लेलक चलबाकँ छै
तौं लग पङोस आ जोजन की
चलैत रहबटा थिक कबिलती 


बिलमि गेलहुँ फेर जीवन की

कर्महिंटा छै बस एक बेगरता
मानि चलल जे जिनगीक बाट
तिनका कोन परवाह जगतकँ
की जाजिम की टूटलाहा खाट
बूझलक जौं सुआद करम केर
फेर की तरुआ आ तीमन की
चलैत रहबटा थिक कबिलती
बिलमि गेलहुँ फेर जीवन की


जीवनकँ जे खेल बूझि राखल
मरबाक डर कि कखनो करत
मरबतँ एकटा सुच्चा सत छैक
डेरा-डेरा कि खण-खण मरत
ओढि लेलक जौं दागक कपङा
फेर की कानब आ खनहन की
चलैत रहबटा थिक कबिलती
बिलमि गेलहुँ फेर जीवन की


@ राजीव रंजन मिश्र 

         मूलमन्त्र

कानि रहल अछि दहो-बहो
धरतीक सबसँ पैघ जनतंत्र
जन-गन आतुर भेल सगरो 
लचरि गेल अछि यौ गणतंत्र
आउ गढ़ी हम नवल विधान 
उन्नति होइ जकर मूलमन्त्र !

विधि विधान केर उचित मेल 
संविधान जे छल अतुलनीय 
बदलल युग केर परिपाटी मे 
बेबस पड़ल भ' घोर सोचनीय 
संविधान होइक़ संशोधित आ 
ख़तम होइ राजनीतिक कुतंत्र !
आउ गढ़ी हम ..............

ने बिन बातक हम राड़ करी 
ने दूरि करी अपन संसाधन
गात,मोन आर प्राण लगाकँ
सदति करी कर्तव्यक पालन
चलू रचब हम नब भारत ओ 
जतह गाम गाम लागै संयन्त्र !
आउ गढ़ी हम ..............

ओ संविधान जे भूख मिटाबय 
ऊँच-नीच केर गीत ने गाबय 
बाल-बृद्ध चहुँ कात हँसैत होय 
नारि -पुरुष समतुल्य बनाबय 
ने जाति-पातिकँ नामे जाहि मे
वोट-जोगाड़क चलय षड़यंत्र !
आउ गढ़ी हम ..............

छैक मांग प्रबल आइ समय के  
आबू किछु बदली हम अपनाकँ 
सोन चिरै हम बनी फेर विश्व मे 
सह्जोरि नियारि पाबी सपनाकँ
तखने अपनाकँ सखा बंधु सब 
सरिपहुँ बूझब हम अहाँ स्वतंत्र !

आउ गढ़ी हम नवल विधान 
उन्नति होइ जकर मूलमन्त्र !

@ राजीव रंजन मिश्र     
जाड़क बाबैत

भोरे सुरूज देर करैथ
आ दिन जल्दीसँ झाँपैत
नेनासँ बूढ पुरानक देखू
हाथ पायर अछि काँपैत
सुतल जवानी तानि चदरिया
ई थिक जाड़क बाबैत !

छायल मुहँ पर हरियरी
गाछ बिरीछ सब जागल
लहलही देखू जगती कए
कोने कोण रंग पसारल
मोन मगन अछि गाबैत
ई थिक जाड़क बाबैत !

क्यौ काँपि रहल जाङे थर थर
माघ पूस केर कनकन्नी छैक
कैलक सभटा ई अधमौगैत
बुढ बिप्पनकँ गर्दन्नी छैक
सदिखन जीनगीकँ सिहराबैत
ई थिक जाड़क बाबैत !

रोपनी छँटनी कैल अखारक
जौं भेटल समुचित अगहनमे
पुलकित मोने चौक चौबटिया
रभसि रहल सब जीवनमे
शीत प्रकृतक रूप सजाबैत
ई थिक जाड़क बाबैत !

सभ रूपे धरनीकँ गमकाबय
शीतक ई मदमातल काल
देह मोन जीवन दमकाबय
माहि मंडित भेल तरुअर ताल
अभरन भरिगर अछि पहिराबैत
ई थिक जाड़क बाबैत !

राजीव रंजन मिश्र 
की जनमदिन की मरन दिन
दिन सभटा होय एक समान
कैल धैल रहत जेहन अपन
भेटत तेहने मान आर दान

किछु काज करी हम जीवनमे
सुच्चा काज होइ जकर नाम
मोन सन्तोषे भरल रहैक आ
बनल रहैक सब ठाम सुनाम

जन्मदिनत' घटा दैत छैक आरो
जीनगीक अवधिसँ एक टा साल
हम बुरिबक बनिकँ खुशी मनाबी
कलचक्र केर हम बुझल ने ताल

दिन वैह नीक जे लागल किनकोमे
ने हँसी ठट्ठामे आ ने खाय पीबयमें
भगवान कहब हम सदति यैह तोरा
रखिह' विवेक बचल बस जीबयमें 


@ राजीव रंजन मिश्र 

गजल-28

ने जानि केहन ई हवा चलल अछि             
आब लोक लोकसँ डेरा रहल अछि

किछु मोचंड छै लेने टेंगारी हाथ मे 
आ चारू दिस कोहराम मचल अछि

जकरासँ घर दालान ने सम्हरल 
पुरे महिकँ सरदार बनल अछि 

जीबैत किनको ने गुदानैत जे सभ 
मरिते तिनकर नोर झड़ल अछि 

भोरे अन्हरखे जौं हाल एहन फेर 
देखबाक चाही की सांझ कहल अछि 

ने कहि कोन बसात बहत कखन 
करनी देखू रंग ताल भरल अछि 

"राजीव" गरम छैक हवा बजारक 
नेता चमचा सगरो पसरल अछि 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-14) 
@ राजीव रंजन मिश्र 



गजल-27
खुट्टाक चारू कात आब श्रमजानू
अहाँ दौन करैत ने हक्कन कानू 

ने छैक कर्तव्यक सीमान कोनो यौ
चाहे ई बात अहाँ सहजे ने मानू


जे ख़टतै से पैयबे टा करतय
बाबू ई खाहियारल बात छी जानू


सत सभ दिन जितबे टा करत
बैसि अहाँ बस निशि वासर गानू


करनी किछु ने बाजल फट फट
छोडू ढाठी आब जुनि आर बखानू 


नब पुरनाक होइक समागम
सोचि विचारि नब बाट समधानू  


"राजीव" बुधियारक बानि यैह छै
ने धड़ खसाबू आ ने करेजा तानू


(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-13)
@ राजीव रंजन मिश्र


आतंक आ आतंकवाद

आतंकवाद कए रहल निनाद 
घर-समाज देशक सीमान धरि 
कतहुं सजग प्रहरी मारल गेल
बाल वृद्ध नारि कंपैत सभतरि
आबहुं जौं ने डाँर कसब सब 
त' मरब आतंके खहरि खहरि
प्रतिकार करब सीखी दोषीकँ 
ने जन्मत ने बनत भोकन्नरि 

आतंकवाद केर मतलब की बस 
सीमान हनन बमबाजीये टा छै
खनखन मर्दन जे होय मनुखक  
से की आतंकसँ छोट व्यथा छै 
घर कमजोर करब अप्पन आ
कहबय अनकर कैल कथा छै
टोल पड़ोस ने घुरिकँ ताकब
कहब सब सरकारक जथा छै  


आतंक वैह ने जे बम फैलाबय 
आतंक ओहो जे शांति मेटाबय
आतंक वैह ने जे छलसँ मारय 
आतंक ओहो जे बल देखाबय 
आतंक ने बस आतंकिक कैलहा
सभटा दुष्कर्म आतंक कहाबय  
आतंक ने कोनो जाति मचाबय 
लोकक बानि आतंक फैलाबय 

आतंकवादकँ  बात करय छी 
प्रतिवाद करैसँ मुदा डरय छी 
घर-समाज आ टोल पड़ोस मे
अनर्थ देखितो चुप्प रहय छी
शासन शासक पर दोष लगाकँ  
अपने रहि सब शांत सहय छी
चौक चौबटिया आतंकी पसरल 
छैक सरकारक दोष कहय छी ?
जौं दोषरहित रहितहुं अपना मे
साहस करैत की बैरी सपना मे
स'र-समाज मे सब जिबय छी 
सामर्थक सब लाभ बुझय छी 
आबू अपनाकँ समर्थ बनाबी 
जइर पकरिकँ फुनगी पाब़ी 
टोकी मुहें पर दोषी जुल्मीकँ 
आतंक आ आतंकवाद मिटाबी 
@ राजीव रंजन मिश्र  

  
  
   
  
बाल गजल-11

तू आगू आगू चल भैया,पाछू पाछू चलबै हम      
जखनेकँ तू कह्बैं तखने पुक्की पारबै हम  

गाड़ी खुजतै मधुबनीसँ, दरिभंगा धरि जेतै
जकर मोन से चढ़तै,ककरो ने रोकबै हम 

दीदीयो के हम संग लेबै आ जेबय नानीगाम 
नानी हाथक मिठका पुआ खूब कचरबै हम  

तू ने आगू भगिहैं भैय्या, दौगल हैत ने हमरा
हाथ जौं छोड़लें त' बुझि ले,बाबूकँ कहबै हम 

खेला धुपाकँ,अंगना फिरबै हमहूँ तोरे संगे 
भैय्या सत्ते मोन लगाकँ तोरे जकां पढ़बै हम 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-18)
@ राजीव रंजन मिश्र     
देश में लगातार भ रहल नारिक प्रति हिंसा आ बलात्कारक घटना सब मोनकँ विदीर्ण कए रहल अछि। किछु दिन पहिने आसाम दंगा मे नारिक अंग प्रत्यंग काटिकँ फेक  देल गेल छल आ टटका घटनाक्रम छी दिल्ली में देहमर्दनक,व्यथित मोनसँ  किछु पांति निकलि गेल,अपने लोकनिक सोंझा राखि रहल छी गजलक रूप मे:

गजल 25
कहियो अहि माटि पर पूजल जैत छली नारि
आइयो धरि घर कए सम्हारैत रहली नारि 

रहल सभ दिन एक्कहि टा रूप नारिकँ सौम्य
सहली सभ दुःख चुप्पे कहियो ने तनली नारि 

कहियो सजाओल जैत छल देह पर गहना
आजुक समाज में मुदा सभ रुपे लूटली नारि 

जन्म लेली माटि सए जाहि देश में जनकसुता 
ओहि ठाम कुकृत्यक कारने लाजे गरली नारि 

ओइल सधेबाक नव रूप देखबा में आयल
अंग अंग कटवा कए धरा पर खसली नारि 

जानकी द्रौपदी अहिल्या अनसुईयाक गाम में
गारि-मारि सुनि आ देहमर्दित भ' कनली नारि 

हदसँ बाहर भए गेल बात आबत' यौ बाबू
कामुक दराधक हाथे नोचा नोचा मरली नारि  
उठू उठू हे नारि अहाँ पुनि चंडी रूप देखाबू
जग कांपि उठै देखि जे घरसँ निकलली नारि  

"राजीव"जगाबैथि अहि माटिक माय बहिनकँ
कहिया धरि सहती सभटा बनि पुतली नारि 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१८)
राजीव रंजन मिश्र 






  
आज के उनवान: लज्जा/अस्मत/इज्जत पर जितना भी लिखा/कहा जाय वह कम है,पर पता नहीं क्यों आज पहली बार वर्तमान परिस्थितियों में अपने को असहाय सा महसूस किया कुछ भी लिख पाने में,फिर भी चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत है:


छाई है चंहु ओर 
दरिंदगी की शोर
लोग हुए मतशुन्य 
व्यवहार हुए मूर्धन्य
मानवता है आज शर्मशार 
अब छिन्न हुए हैं 
मनुष्यत्व तार-तार
कर रहे शील का भक्षण 
सोचें,फिर कैसे 
हो लज्जा रक्षण! 

ऐ,बुजदिल,कायर!
नर रुपी अधम निशाचर
मत लज्जित कर 
यूँ पुरुषत्व को 
है धिक्कार तेरे 
तुच्छ अस्तित्व को
गर रहे यही 
जो चाल चलन
सोचें,फिर कैसे 
हो लज्जा रक्षण! 

मन विवेक हीन 
तन वसन हीन 
कर्म दीन हीन  
धर्म निष्ठा विहीन 
व्यापित है तृष्णा  
कण कण में 
है मृतप्राय सा 
चिंतन जन गन में  
सोचें,फिर कैसे 
हो लज्जा रक्षण!

राजीव रंजन मिश्र 







अति उत्साहित हर्षित मोने हम अधिकार दिवस मनाबय छी
मिथिला मैथिलिक होय जग वंदन बस गीत याह टा गाबय छी 


होय नारिक समुचित शिक्षा-दीक्षा ने भेद होय बेट़ा-बेटी में कोनो
होय ख़त्म जैतुकक लोलुपता सत मोने ई शपथ उठाबय छी


अछि कष्ट भरल धियाकँ जिवन,चलल केहन गन्दा परिपाटी
देखि समाजक अधोदशा,आँखिसँ हम शोणित नोर बहाबय छी


नौ बरख बितल छी गनल गुथल,सेहो अपने मे भाँजैत लाठी
अपनहिं रंग ताल में मदमातल एक-दोसरकँ गरियाबय छी 


अछि भरल पुरल इतिहास अपन,ने ककरोसँ हम घटल
की कमी रहल,चलू बैसू पहिने याह हम-अहाँ फरियाबय छी 


कानि रहल छथि माँ मिथिले,मैथिल चहुँदिसि छिङियायल छथि
यौ बाऊ लोकनि मैथिल ललना,आबू मिलि मिथिलाकँ सजाबय छी 


धरू नब डेग छोडिकँ मनमोटाब आ ऊँच -नीच केर भेद भाब
ने रभस करी ने दम्भ कनिकबो "राजीव"सदति गोहराबय छी 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-25)
राजीव रंजन मिश्र 




नवल सोच होइक नब साल मे,नब समाज केर होय रचना
गमकइ सबहक फुलवारी आ भरल पुरल होय घर अंगना 
मिथिला मैथिल केर जग वंदन होय सबतरि चंहूँ तरफ़ा  
मित्र लोकनिकँ नव बर्षक "राजीवक" अछि शुभकामना 
राजीव रंजन मिश्र 
नवल सोच नव चेतन मन में,नूतनता से छाई हो
नया साल ये आप सभी को हार्दिक खुब बधाई हो


अवसाद रहित हो जीवन सबका,आपस में सद्भाव रहे
जनजीवन हो शांत सरल और दूर अदद मँहगाई हो


नारी को समुचित सम्मान मिले,महफूज रहे अनुज तनूजा
करें सुनिश्चित हम यह कि फिर कोई 'दामिनी' की न बिदाई हो


प्रजातंत्र नित विकसित होवे ,राजनीति हो स्वस्थ सुघड़
भ्रष्टाचार मिटे जीवन से,रोटी मेहनत निष्ठा की कमाई हो


हो द्वेष रहित अपना जीवन,"राजीव"जगत में प्रेम रहे
बीते निष्फल साल बहुत अब हर गलती की भरपाई हो

राजीव रंजन मिश्र 

गजल-25 
हे नारि! अहीं रणचंडी छी आर अहीं ममतामय छी
एना किया कातर बनिकँ टुकुर टुकुर ताकय छी 


छी अहींक बनाओल ई जगती आ जगती केर लोक
बिसरि अपन सभ रूप एना किया मुंह बाबय छी 


छी सदी एकीसम मे हम सब आर अहाँ छी बैसल
उठू जगाबूँ नब क्रान्ति कहबाक याह टा आशय छी


अछि मांग समयकँ उत्थान नारि केर चहुँतरफा
पढि लिखि दौगू अपना पैरे नहु नहु की धाबय छी


"राजीव" बेकल छथि देखै लेल अहाँकँ महि -मंडन
चिकरि -चिकरि हम सदति समाजकँ जगाबय छी  

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-20)
राजीव रंजन मिश्र 

 लोकतंत्र/ प्रजातंत्र

'लोकतंत्र' वह तंत्र है जिसमे,जनता ही शासक चुनती है
अपने सोच समझ के बल पर अपना किस्मत बुनती है 
लोकतंत्र को दोष न दें हम,तंत्र यही है सर्वोपरि सर्वोत्तम
जनता द्वारा जनता के हित जनता की शासन चलती है 

प्रजातंत्र की बातें करना मानो तब तक है बेहद बेमानी
अधिकार संग फ़र्ज़ निभाने की जबतक हमने ना ठानी 
पाँच साल रोते चिल्लाते और चुनाव में चुप हो बैठें घर 
चाहिए सब कुछ बनी बनायीं,अपनी है बस यही कहानी 

आँखों के सामने कुछ भी हो पर जुबाँ नहीं हम खोलेंगे 
पीठ के पीछे मुद्दा कोई हो,खुब जोड़ तोड़ कर बोलेंगे 
फितरत रही सदा सुनने की पीछे पीछे सबके चलने की
हाथ लगेगी जब मायूसी तो घड़याली आंसू सब रो लेंगे  

जिसने पाया बस देश को लूटा,यही एक बस मूलमन्त्र है 
हाल गजब है आज जगत की देखो कैसी यह प्रजातंत्र है 
सहते चुप रह अन्यायों को,करते हैं हर पल दोषारोपण 
चुनकर लाते खोटे सिक्कों को,कहते हैं कि हम स्वतंत्र हैं   

बाँट लिया है हमने खुद को,राजनीतिज्ञों के दलबंदी में 
कुछ बैठे इनके खेमे में तो हैं कुछ दौड़े उनकी झंडी में 
सत्ता इनकी हो या उनकी,हमें भला क्या हासिल होगी 
बारी बारी से लुटेंगे वो हमको राजनीति के गंदे मंडी में 

सजग सचेतन हो जाये हम,बेहतर यह सबके हक़ में है
प्रश्न उठाना नहीं है काफी,होशियारी समुचित हल में है 
लोक तंत्र के ढांचे में गर लोक रहें कर्त्तव्यनिष्ठ,जागरूक  
शासक क्या भगवान झुकेंगे,कमजोरी तो हम सब में है 

समय नहीं यह अकुलाने का,सच्चाई स्वीकार करें हम 
संगठित,संकल्पित हो हरेक जुल्म का प्रतिकार करें हम
लोकतंत्र की मर्यादा को समझें और इसको मजबूत करें 
वीर शहीदों का सपना "स्वर्णिम भारत" साकार करें हम 

राजीव रंजन मिश्र  
  


लोकतंत्र ओ तंत्र छी जाहि मे लोके शासक चुनय छै
अपन सोच समझदारी सए अपन भाग्यकँ बुनय छै 
लोकतंत्रकँ दोष ने दी हम,तंत्र यैह छी सबसँ नीकगर 
लोकक हाथे लोकक लेल लोकक शासन चलय छै 

प्रजातंत्रकँ बात करब,तखन धरि होयत बेकारहिं टा यौ 
अधिकारक संग बाँहि पुरयकँ जा धरि हम ने ठानी यौ 
कानब चिकरब सालो साल आर भोट दिन कोल्खी धरब
बैसल ठामे चाही सभटा,छी अपन सभकँ यैह पिहानी यौ

आँखिक सामने सभटा देखब मुदा मुंहसँ ने किछु बाजब 
पीठक पाछू ताल ठोकब आर सबसँ बेसी होशियार बनब
अछि पुरान ढाठी ई अपन,लोकक पाछा पाछा चलबाक
ठेस लागिकँ खसब पड़ब,झुठक दहो बहो कानब खीजब  

जकरे सुथरल देसकँ लुटलक,यैह एक टा मूलमन्त्र छी 
चलल केहन परिपाटी देखू,केहन विरल ई प्रजातंत्र छी 
चुप बैसल अतिचार सहब,करब सबहक टीका-टिपण्णी
चुनब सभटा मरलाहा नेता,छाती ठोकब हम स्वतंत्र छी  
      
बाँटल हम सब अपनाकँ,नेता सबहक झूठक गुटबंदी मे
किछु बइसल एक सामियाना तर आ किछु दोसर हंडी मे 
राज हिनक हो बा हुनकर,भेटत अपना की मूंगबा लडडू 
लुटता पाला बदलि बदलिकँ,फँसा बंझा सब धुरफंदी मे

जागी हम सभ चेती अपनाकँ,होयत नीक ई सबहक लेल 
सवाल करब टा ने बुधियारी,निदान करी भविष्यक लेल 
लोकतंत्र मे लोक रहल जौं,कर्तव्यनिष्ठ,चौंउचक सभ रूपे 
शासन की भगवानो झुकता,अपने चालि छी बुरिबक भेल 

समय थीक ने ई लड़यकँ,आबू सबहक सत्कार करी हम 
संगठित आ संकल्पित रूपे,मिथिलाकँ जयकार करी हम
ऊँच नीच केर भाब मिटाबी,सभ गोटे संगहिं संग धाबी
अभिलाषित 'मिथिला' राज्यक सपना साकार करी हम 

राजीव रंजन मिश्र   
    
    



गजल-26 
दिन पलटतय एक दिन आँहा आस लगेने रहब
मोन जुरेतय विधना बस आँहा बाट सजेने रहब

टाका पैसा गहना गुङिया काज ने दए अहिंठाँ ककरो
बात विचार ब्यबहार आँहा बस नीक बनेने रहब


दुनिया कनय छैक सभतरि अपनहि खातिर ऐठाँ
लोकक नीक बेजाय मे आहाँ बस हाथ बटेने रहब


बड्ड काज करय छैक बुढ-पुरानक आशीष वचन
डेग डेग पर सभकँ आशिर्वाद संग समेने रहब


बहुत कठिन छैक आइ काल्हि चलब अहि महि पर
बुद्धि विचार  विवेक अपन सभ ठाम बचेने रहब


नांगरि झाङिक' चलब जगती पर चालि छी कुकुरकँ
टोल परोसक हक हिस्सा लेल  आबाज जगेने रहब


कैलहा सभटा बिसरत "राजीव" आहाँक लोक अपन
अप्पन आनक ने बोध राखि बस रंग जमेने रहब

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-21)
राजीव रंजन मिश्र 


आवाम क्यों जिद्दी बनी है बोलना ही चाहिये
सरे आम ये रुत चली है तौलना ही चाहिये

स्याह काली हो चुकी है यह चादर प्रजातंत्र की
इन्द्र की सत्ता भी अविलम्ब डोलना ही चाहिये

अब समाज प्रबुद्ध हो,दिन रात बस आगे बढे 
द्वार नित नये मंजिलों के खोलना ही चाहिये

छोड़ सारे भेद भाव आओ मिटायें घोर तम
प्रगति के सारे पथों को टटोलना ही चाहिये 

बातें न हो अधिकार की बस महज प्रतिकार की 
फ़र्ज़ भी की जाये अदा,सत्य बोलना ही चाहिये  

"राजीव" आ पड़ा है वक्त अब मिल कर चलें
जग में शांति विकास रस घोलना ही चाहिये 

राजीव रंजन मिश्र 


सदा सुलगते जज्बातों के मैने जो हार पिरोये थे
देख बिखरते टूट के उनको दामन अश्कों ने भिगोये थे


कहीं दिखी रंगीन समां तो कहीं सिसकती आहें थी 
कभी सजे मुस्कान लबों पर तो कभी फफक कर रोये थे 

जीवन आँख मिचौली खेले जैसे बादल और सूरज नभ में 
शाम ढले यह प्रश्न उठा क्या पाया हमने क्या खोये थे 

गम गलत किया हम ने औरों का,ठोकर खाकर सीने पर
सूनी रातों में तड़प-तड़प कर रिसते जख्मों को धोये थे  

हो दूर उदासी के मंजर और चेहरे सारे खुशहाल दिखे 
"राजीव" चमन आबाद रहे हम स्वप्न यही संजोये थे  

राजीव रंजन मिश्र 







 हालात /परिस्थिति/सिचुएशन :
पिछले कुछ दिनो से अजीबो गरीब हालात का सामना करना पर रहा है,कल जब उन्वान के रूप में  हालात शब्द दी गयी  तो हठात् मेरे दिल मे यह बात आयी कि हम अक्सर हालात की दुहाई देते रहते हैं मगर हालात/परिस्थिति हम मनुष्यों के बारे में क्या सोचती होगी,चन्द पंक्तियाँ खुद हालात के शब्दों में .....आज के उन्वान पर मेरी दूसरी रचना के रूप में,मेरे ज्ञान के हिसाब से !
परिस्थिति जो
स्वंय बनाये गये
हो के लाचार
उसी में फँसकर
कोसते रहे मुझे !

जुबान पर
सुनाई दे सबके
आदर्श बातें
पर व्यवहार में
सब के सब वही!

हाँ,मिले चन्द
वीर गाहे बेगाहे
अपने बूते
सम्हाल कर मुझे
निश्चिंत कर दिया!

वो फूले फले
हर दौर में चले
बाधाएँ हारी
राह छोङ उनके
राहु केतु भी भागे!

ओ बुजदिलों!
सुन लो बात मेरी
सामना करो
डँट कर मुझसे
मुझे मौका न देना!

क्योंकि दोस्त
मैं हूँ तुम्हारे कर्मों
का प्रतिफल
प्रारब्ध मात्र तेरा
हूँ मै निर्विकार!

राजीव रंजन मिश्र
 हालात /परिस्थिति
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जीवन में हालात हमेशा खेल गजब दिखलाती है
कभी हंसाये कभी रुलाये और कभी तड़पाती है 


हँसते मुस्काते हम अक्सर,रहते हैं कल से बेगाने
पलक झपकते हालातें,बेदम हमको कर जाती हैं


दिखे निरंतर लोग लगे,कुछ बेहतर कर जाने में
मगर बङे ही मीठे ढंग से,नियति सदा चौंकाती है


है कौन यहाँ जो बतलाए,क्या छिपा हुआ अगले पल में
यह कालचक्र तो सदियों से,मानवता को भरमाती है


क्या राजा क्या रंक यहाँ,हाल सभी का एक समान
ऊँगली पर हालात सभी को,जमकर नाच नचाती है 


हालातों पर नहीं रहा है,"राजीव" कभी भी वश अपना
नियति को मान कर चलना,अकलमंदी कहलाती है 


राजीव रंजन मिश्र 
परिस्थिति त 
सोचनीय भ गेल 
भद्र लोकनि 
मनुक्खता के छोङि
अगुआ  गेल छथि !!

क्यउ नै छथि
बात  पर टिकल 
करबा  काल 
व्यवहारिकता में
रहलै नहि सुधि !!

बजय छथि 
समर्थन करैथि 
रहितो छथि
मुदा जखन काज 
तखन नदारद !!

याह रहल 
जौ रवैय्या अप्पन
त सरकार
भूलि जाउ सुधार
झूठक इन्कलाब !!

राजीव रंजन मिश्र



दोस्ती बेशकीमती
सौगात है कुदरत का,
छोटी छोटी बातों से
तुनक कर
फना नहीं होती।

ये अलग बात है,
मेरे दोस्त!
कि हरएक शख्स में
इसे निभाने की
कला नहीं होती।


राजीव रंजन मिश्र 
झोंका मस्त पवन का उनकी हर प्यारी बातें हैं
घनघोर घटा छा जाये जब केश सघन लहराते हैं

दिल को पागल कर जाती चंचल चितवन उन आँखों की
हर एक अदा उस जालिम की बस चाक जिगर कर जातें है

अहसास ही उनके होने का,काफी है बहलाने को खुद को
हम उनके खयालों में खोकर ख्वाबों के शहर हो आते हैं

फुर्सत जो मिली तो देखेंगे क्या वक्त को है मंजूर भला
फिलहाल खुदा जो बख्शा है आओ लुत्फ़ उठाते है

झूकी निगाहें खामोश जुबां कई बात बयां कर दे अक्सर
"राजीव"फ़रिश्ते बातों को एक मोड़ नया दे जातें हैं

राजीव रंजन मिश्र 



जब बात चली जज्बातों की,वो दौर पुराने याद आये
दिन रात कठिन हालातों में,वो मस्त तराने याद आये


जिक्र कभी जब होता है,महफिल में इश्क मोहब्बत की
नूर भरे सुरमई आँखों के,वह स्वप्न सुहाने याद आये


दिन कट जाते हैं पल भर में, फिर शाम ढले खामोशी से
यादों की मिठी कसक लिए,वो सारे फँसाने याद आये


कहते हैं चीज बुरी है मय,जलता है जिगर यह पीने से
दिल के मारे को यार मगर,पग पग मैखाने याद आये


"राजीव" जहाँ को कद्र कहाँ,रिश्तों में छुपी उन बातों की
जब जब मुङकर देखा पिछे,दिलकश नजराने याद आये

राजीव रंजन मिश्र 
हमेशा यही बस कहानी रहेगा
सदा हर गम से बेगम जवानी रहेगा 


दिलों को जो जिते दिलकश अदा से
जिन्दगी में उसी के रवानी रहेगा 


आह दिल की न लेना कभी तुम ऐ दोस्त
फिर चहकता सदा जिन्दगानी रहेगा


खामोश लब हों और चाक चौकस निगाहें
दुर तुझसे हर हमेशा नादानी रहेगा 


दिल में" राजीव" न रखना अदावत किसी से
बेशक खुदा का तुझपे मेहरबानी रहेगा

राजीव रंजन मिश्र 
सर्दी/शरद/ठंढ/विंटर/जाड 

रातों में नींद सुकून की देती प्यारी कव्वाली शीत काल की 
मन को सदा रिझाने वाली बात निराली शीत काल की 

ग्रीष्म की मेहनत और वर्षा के सींचे बीज के दाने को 
परवान चढ़ा मंजिल दिलवाती सदा दिवाली शीत काल की 

कुछ काँप रहे थर थर तो कुछ रहे शीत को माप रहे 
खट्टा मीठा अहसास दिलाती हर पग मतवाली शीत काल की 

कहीं छलकती मदहोशी तो ठिठुर रहे हालात कहीं
महसूस करें गर दिल दिमाग से हम बदहाली शीत काल की 

मजबूत इरादे पुख्ता सोचों का र्संगम हो बस जीवन में
"राजीव" निखारे रूप सदा मौसम दिलवाली शीत काल की 

राजीव रंजन मिश्र 




आज का उनवान: सर्दी/शरद/ठंढ/विंटर/जाड

जाङे की गर बात करें तो बड़ा सुहाना ठंढा लगता है
फितरत के कारण बेमौसम हर रिश्ता ठंढा लगता है 


बात करें क्या हालातों की देखी जो हर महफ़िल में
होठों पर मुस्कान लिए जग दिवाना ठंढा लगता है


लिये ठोस जज्बात हृदय में निर्धन शीत से बेगाना है
सुख समृद्धि के कम्बल से लिपटा बेचारा ठंढा लगता है 


खुद सोयी जो गीले में,उसके खातिर पूस की रातों में
उस माँ के प्रति व्यवहार पुत्र का सारा ठंढा लगता है 


"राजीव" नहीं है कठिन जरा भी सहना मौसम के जाड़े को
व्यवहार शिथिलता देख मनुज में दुष्कर सा ठंढा लगता है


राजीव रंजन मिश्र 



 शब्द/अक्षर/हर्फ/लव्ज़/ वर्ड ...

शब्द है फूलों की माला शब्द ही तो तीर है 
क़त्ल कर दे जिगर का शब्द वो शमशीर है 

चंद लब्जों के बदौलत इंसानियत महफूज़ है 
चश्मे दिल से देखें अगर सब हर्फ़ की तासीर है

हर्फ़ में जिन्दादिली रख कई शाहेआलम बन गये 
अल्फाज़ के मुफलिसी से बिगड़ा सैकड़ो तकदीर है 

तल्ख़ लहजे लब्ज के,उकूबत है अपने आप में 
जाबित सख्शियत हर दौर में पाता रहा जागीर है 

हर हर्फ़ जो निकले जुबाँ से बस शान्ति का पैगाम हो
"राजीव" नेकी कर सदा बस यह सही तदबीर है 

राजीव रंजन मिश्र 



शमशीर:तलवार 
तासीर :दिखावट,देखने पर जैसा दिखाई पड़े।
उक़ूबत:दंड,सजा,उत्पीड़न,यातना।
जाबित:कठोर नियमों का पालन करने वाला,अनुशासक।
हिमाक़त:बेवकूफी,मुर्खता 
सियासत
क़यादत 
अदालत
 हिमायत 
किल्लत
शरारत
हालत
नफरत
इज़्ज़त
हरारत
इबादत,दावत,अदावत,खयानत,साअत,शराफत,सदाक़त,हजामत

माहताब ,शबाब,लाजवाब,आफ़ताब,नकाब,

अक्सर दिखते हैं
सङक के किनारे
फुटपाथ पर
बढी हुयी दाढी व
मैले कुचेलै वस्त्रों मे
कई विपन्न इन्सान
प्लास्टिक के थैली मे
किसी रेस्तरां के बाहर
फेकें गये खाद्यान्नों के
जूठन को समेटे
पेट भरने को खाते
बङे ही निर्विकार भाव से
अपना भूख मिटाते!

घर घर में है देखा
बच्चों से बूढें तक को
जिह्वा के चाटुकारिता
के वज़ह से कुछ खाते
व अधिक व्यंजनों को
नाले में बेदर्दी से गिराते
बिना एक पल ठहर कर
सोचे हुए कभी भी
कि दुनियां में बेहिसाब
किस्मत के मारे लोग
तरसते हैं ,
मुठ्ठी भर दाने को
अपना भूख मिटाने को।

हम यह मानें कि पेट की
भूख बढाने या दबाने की
चीज़ नहीं बल्कि,
मिटाने की चीज़ है
क्यों ना हम सब
दाने दाने को बचाएं
तन व मन से भरे
लोगों को ठूस-ठूस कर
खिलाने के बजाय
उन बेबस भूखे
गरीबों को खिलायें
जो कि हैं मोहताज़
उनकी क्षुधा मिटायें। 

राजीव रंजन मिश्र  



अगर सोचने पर आयें हम तो बातें हज़ार हैं 
ये बात और कि हम किस हद तक तैयार हैं
भूख के सौ चेहरे दिखते रहते यहाँ दिन रात 
बेशक हर एक के मगर अपने तीमारदार हैं 

दो रोटी नहीं मयस्सर कहीं भूख मिट़ाने को
खा-खा कर दिन रात मगर लाखों बीमार हैं  

कुछ करने की भूख को सिद्दत से संजोकर   
"कल्पना" दिखें जाते हुए अन्तरिक्ष पार हैं  

प्रेम और सौहार्द के भूखे मासूम भटक करके  
इंसानियत को "कसाब" बन करते शर्मसार हैं 

कहाँ तक गिराता इन्सान को वासना की भूख
"कोली" और "पंढेर" के भी हमें हुए दीदार हैं 

"राजीव" मिटायें भूख को बजाय हम बढाने के 
दिन जिंदगी के यहाँ मिलते गिने-गिनाये चार हैं 

राजीव रंजन मिश्र 


जरा सी बात क्या कह दो वो आपे से बाहर हो जाएँ 
गुले गुलफाम जो कह दो वो अपने में शायर हो जाएँ 

इंसानियत तो आजकल बिकती है चंद सिक्कों में
लूटा दो हाथ से पैसे हर कोई जवाहर हो जाएँ 

सच बोलने की खफा क्यों करता है कोई आज के इस दौर में 
ऐसा न हो कि उनके रहमो करम से बेवस व कातर हो जाएँ 

जहाँ देखो वहीं एक हवा सी चली है बातों में सफेदपोशी की 
बस एक मौका लगे जों हाथ तो सब "राजा" के बिरादर हो जाएँ 

किसे पड़ी है आज कल भला इस देश और समाज की "राजीव"
सभी को सोचग्रस्त देखा कि बस कैसे दरिया से सागर हो जाएँ 

राजीव रंजन मिश्र

Wednesday, February 13, 2013



फूलक रस पिययवाला,जखन काँटक गरब सहतै
तहन सूतल पङल मोनक,बैथा सभ हारिकँ कहतै
चलू सुनगा दी हम सभ कोणकँ,ललकारसँ अपन
धधरा जौं ने उठल तौं,कोना आगिक असर रहतै

सदति रहल छै जगती पर,अहीटा बात केर झगड़ा 
हमहीं पइघ आ तू छोट,देखाओत आँखि के हमरा
चलू हम छोऱिकँ ढाठी,सुनी सभ गप एक दोसरक 
फूलत ने मुहँ जौं किनको,तहन रहत कथिक रगड़ा

राखी हम अपन व्यवहारकँ,सुनय आ सुनाबय जोग
भौतिक तापसँ बचिकँ,रही हम चकचक दोगहिं-दोग
भोगैथ वीर धरनीकँ,रहै छैक नाम बस कर्मसँ सभके 
बनी हम वीर आ बुझनीक,बढाबी जोग,जप,तप,भोग

ख़त्म करी आब नाचब गैब,फुसियाहींक नोचब मुँह 
आनी जानी किछु ने जाहिसँ,गैले गीत ने गाबी हम
मोनक साती नाद करैत अछि,नब करी किछुतौं नब 
मिटा धराकँ घोर अन्हरिया,सगरो इजोत फैलाबी हम 

राखब बोध कर्तव्यक,जौं सदिखण मोन-दिमाग मे
करी बस बात टा ने अधिकार के,घर आ समाज मे
पहुँचल चान पर दुनिया,नियार भाष बुद्धि विचारसँ
राखब बानि सुन्नरतौं,रहत कि भांगट राम-राज मे

@ राजीव रंजन मिश्र

फूलों के रस पीनेवाले,जब काँटों का चुभना झेलेंगे 
सोये मन के पीड़ तभी,थक हार व्यथा सारा बोलेंगे 
चलो सुलगा दें सभी दिशायें,हम ललकार से अपने 
धधक उठे न ज्वाला तो फिर असर आग क्या छोड़ेंगे 

सदा रहा है इस जग में,झगड़ा बस इस बात की 
हम बड़े और तुम छोटे,है भान तुम्हें औकात की?
रवैय्या छोड़कर यह हम,सुने एक दुसरे की बात
रहे फिर,रगड़ा भला किस बात की