Wednesday, January 23, 2013


जखन चलल कोनो चर्चा हियामँ टीस उठल छल
जखन बहल यौ पछवा देहमँ शीत लागल छल

ओनात' संग चलयला बहुत हमर हितैषी छल
मुदा ओ बात ने ककरो मे किन्नहुँ ताकि भेटल छल

जगतकँ बात की करब विरल एक्कर पिहानी छै
जतय देखल ओतहिं सभक्यौ खीचैंमँ जूटल छल

बिसरि कैलहा ने राखल मोन कोनो किर्तकँ जकर
ओही बाँसक बरेरी पर सभकँ आस टीकल छल

जुअनका ताल ठोकै आर बुढबा मोछ पिजबै बैसि
अही धूरखेल मे सदिखन नारी पीसि मरल छल

"राजीव" चारि दिनक लेल भेटल भीख अछि जीनगी 
बुझि एकरा बपौती सभ जेना अकाश चढल छल

राजीव रंजन मिश्र 



मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम!!!!
"जाड़क बाबैत"

भोरे सुरूज देर करैथ
आ दिन जल्दीसँ झाँपैत
नेनासँ बूढ पुरानक देखू
हाथ पायर अछि काँपैत
सूतल जवानी तानि चदरिया
ई थिक जाङक बाबैत !


छायल मुहँ पर हरियरी
गाछ बिरीछ सब जागल
लहलही देखू जगती कए
कोने कोण रंग पसारल
मोन मगन अछि गाबैत
ई थिक जाङक बाबैत !


क्यौ काँपि रहल जाङे थर थर
माघ पूस केर कनकन्नी छैक
कैलक सभटा ई अधमौगैत
बुढ बिप्पनकँ गर्दन्नी छैक
सदिखन जीनगीकँ सिहराबैत
ई थिक जाङक बाबैत !


रोपनी छँटनी कैल अखारक
जौं भेटल समुचित अगहन मे
पुलकित मोने चौक चौबटिया
रभसि रहल सब जीवन में
शीत प्रकृतक रूप सजाबैत
ई थिक जाङक बाबैत !


सभ रूपे धरनीकँ गमकाबय
शीतक ई मदमातल काल
देह मोन जीवन दमकाबय
माहि मंडित भेल तरुअर ताल
अभरन भरिगर अछि पहिराबैत
ई थिक जाड़क बाबैत !


राजीव रंजन मिश्र 

जब बात चली जज्बातों की,वो दौर पुराने याद आये
दिन रात कठिन हालातों में,वो मस्त तराने याद आये

जिक्र कभी जब होता है,महफिल में इश्क मोहब्बत की
नूर भरे सुरमई आँखों के,वह स्वप्न सुहाने याद आये

दिन कट जाते हैं पल भर में, फिर शाम ढले खामोशी से
यादों की मिठी कसक लिए,वो सारे फँसाने याद आये

कहते हैं चीज बुरी है मय,जलता है जिगर यह पीने से
दिल के मारे को यार मगर,पग पग मैखाने याद आये

“ राजीव" जहाँ को कद्र कहाँ,रिश्तों में छुपी उन बातों की
जब जब मुङकर देखा पिछे,दिलकश नजराने याद आये

राजीव रंजन मिश्र 

झोंका मस्त पवन का उनकी हर प्यारी बातें हैं
घनघोर घटा छा जाये जब केश सघन लहराते हैं

दिल को पागल कर जाती चंचल चितवन उन आँखों की
हर एक अदा उस जालिम की बस चाक जिगर कर जातें है

अहसास ही उनके होने का,काफी है बहलाने को खुद को
हम उनके खयालों में खोकर ख्वाबों के शहर हो आते हैं

फुर्सत जो मिली तो देखेंगे क्या वक्त को है मंजूर भला
फिलहाल खुदा जो बख्शा है आओ लुत्फ़ उठाते है

झूकी निगाहें खामोश जुबां कई बात बयां कर दे अक्सर
"राजीव" फ़रिश्ते बातों को एक मोड़ नया दे जातें हैं

राजीव रंजन मिश्र 



अब मैं यह कैसे बतलाऊँ
किसको मैं कैसे समझाऊँ
हृदय यंत्र जो झंकृत कर दे
स्वर बीणा वह कैसे लाऊँ
अब मैं.....................
राग द्वेष का लेश नहीं हो
आपस में कोई क्लेष नही हो
सत्य मात्र का हो अभिनन्दन
वह परिवेश कहाँ से लाऊँ
अब मैं ..................
छलक रहे हैं भाव कलश
फरक रहे हैं सब नस नस
शोणित का अब मान रहे बस
वह सम्मान मैं कैसे पाऊँ
अब मैं...........
समृद्ध धरा हो हर लिहाज से
आलोकित नित नव चिराग से
मानवता चहुँ ओर प्रखर हो
वह प्रकाश किस विधि फैलाऊँ
अब मैं.........
मानस भावों का हो अनुमोदन
सहज भाव समुचित अन्वेषण
निष्कपट रूप निश्छल मन से
यह गीत सदा मैं गाता जाऊँ 
अब मैं.........
है चाह यही बस परमप्रभू से
बैमनस्य हो दूर मनुज से
प्रेम भाव निखरे कण कण में
परिमार्जित वह संसार  बनाऊँ
अब मैं......................
राजीव रंजन मिश्र 

सदा सुलगते जज्बातों के मैने जो हार पिरोये थे
देख बिखरते टूट के उनको दामन अश्कों ने भिगोये थे 

कहीं दिखी रंगीन समां तो कहीं सिसकती आहें थी 
कभी सजे मुस्कान लबों पर तो कभी फफक कर रोये थे 

जीवन आँख मिचौली खेले जैसे बादल और सूरज नभ में 
शाम ढले यह प्रश्न उठा क्या पाया हमने क्या खोये थे 

गम गलत किया हम ने औरों का,ठोकर खाकर निज सीने पर
सूनी रातों में तड़प-तड़प कर रिसते जख्मों को धोये थे  

हो दूर उदासी के मंजर और चेहरे सारे खुशहाल दिखे 
"राजीव" चमन आबाद रहे हम बीज वफ़ा के बोये थे  

राजीव रंजन मिश्र 

Monday, January 7, 2013

बादलों के झूरमुठों में एक परी सी वो दिखी 
आसमाँ के हर परत में एक कड़ी सी वो दिखी 

होंठ उसके ज्यूँ कमल के पंखुरी खिलते हुए 
नैन चंचल बैन निश्छल सहचरी सी वो दिखी 

जब कभी वो हंस परे तो फूल सारे खिल उठे 
शरमों हया से मुस्कुराती फुलझड़ी सी वो दिखी

उस अदा के क्या कहूँ जो बस सितम करते रहे 
दिल तड़पता आहें भरता मद भरी सी वो दिखी 

हमने ठुकरायी थी दुनियाँ उस बेवफा के प्यार में
मुझको करके बेमुरौव्वत चुप खड़ी सी वो दिखी 

या खुदा वो इस कदर क्यूँ बेरहम दिल हो गये 
मुझको "राजीव" यूँ मिटाकर खुद डरी सी वो दिखी  

राजीव रंजन मिश्र 

मुझको "राजीव" यूँ मिटाकर खुद डरी सी वो दिखी
 मुझको "राजीव"यूँ मिटाकर अधमरी सी वो दिखी 
मेरी छोटी बेटी विजयलक्ष्मी जो कक्षा ४ में पढ़ती है ९ साल की है,अक्सर मुझे कविताएँ लिखते देखती रहती है और आज अचानक से वो मेरे पास वो अपने द्वारा लिखी गयी चंद पंक्तियाँ लेकर आयी,जो मै आप सब मित्रों के साथ साझा करना चाहता हूँ....सुधि जनों कृपया उसे आशीष देकर मुझे अनुग्रहित करें :

          जिवन
जब तक जिवन है 
चलते ही रहना है 
जब तक जिवन है 
आगे ही बढ़ना है 

जब तक जिवन है
हमें रुकना नहीं है 
रुकना ही मर जाना है 
रुकना  ही डर जाना है

जब तक जिवन है
झूकना मना है 
जब तक जिवन है
हमें चलते ही रहना है 

विजयलक्ष्मी मिश्र 




शब्द ही हर पीड़ हरते
शब्द ही निःशब्द करते
शब्द ही मारे मनुज को
शब्द ही तो  प्राण भरते
शब्द गर समुचित रहे तो
रिश्ते सहज उड़ान भरते 

शब्द से ही सम्बन्ध बनते
शब्द से ही जीवन हैं सजते
भावनाओं को कह बताते
वेदनाओं को भी हैं जताते 
शब्द जब फिसले जुबाँ से
अनर्थ तब घनघोर मचते 

शब्द ही कारण दुखों का
शब्द से ही कहर बरपते
शब्द ही रस घोलते नित
शब्द से पत्थर पिघलते
शब्दों का बस खेल सारा
शब्द ही सुख संसार रचते 
  
शब्द वीरों के हुँकार भरते
शब्द के हारे कायर कहड़ते
शब्दों को रख सदैव समुचित
मन कभी ना करके उद्वेलित
शब्दों का लेकर वो सहारा
हैं नित नये आयाम चढ़ते

शब्दों में अगर संवेदना हो
मनुष्यता की गर वंदना हो
फिर तो रहे कोई द्वन्द कैसा 
किस हेतु हम कोई कष्ट सहते
शब्दों को नित रख नियंत्रित
सुख-शांति के झूले में पलते 

राजीव रंजन मिश्र   
    

गजल-24
मोन हम्मर कहैत अछि कहबे करत
हम सभ मिलि चली बाट भेटबे करत
काज बड्ड अछि कठिन ई सतारब मुदा
ठानि लेलक मनुखजँ से करबे करत
भोर होइ छैक सदति राति गेलाक बाद
धीर धएकँ रहब सूर्ज उगबे करत
बीति जायत कठिन काल मुश्किलकँ सभ
दिन पलटत फेरो भाग जगबे करत
जीनगी चारि दिन केर छी भेटल उधार
काज ओतबे  करी जे नित छजबे करत
मोन मन्दिरमँ सदिखण राखब उछास
सत सभदिन अनेरो चमकबे करत
आउ “ राजीव" सजाबी सब मिथिलाकँ खुब
नेह पानिक सिंचल गाछ फरबे करत
(सरल वर्णिक बहर,वर्ण-16)
राजीव रंजन मिश्र 

मन मेरा ये कहता है कहता रहेगा 
साथ सब मिल चलें राह मिलकर रहेगा 
काम बेहद कठिन है ये करना मगर 
ठान ले गर मनुज तो निश्चित करेगा 
सुबह होती है रात बीत जाने के बाद 
धैर्य रखें सदा सूर्य निश्चित उगेगा 
बीत जाएगी मुश्किल की सारी घड़ी 
दिन पलटेंगे फिर से भाग्य अपना जगेगा 
जिंदगी चार दिन की मिली है उधारी 
काम ऐसा करें जो सब दिन निभेगा 
मनमंदिर में उत्साह बनाये रखना हमेशा 
सत्य बेवजह हर हमेशा चमकता रहेगा 
आओ "राजीव" सजाएँ हम मिथिला को खूब 
नेह जल से सींचा पेड़ निस्संदेह फुले फलेगा 

शब्द है फूलों की माला शब्द ही तो तीर है 
क़त्ल कर दे जिगर का शब्द वो शमशीर है 

चंद लब्जों के बदौलत इंसानियत महफूज़ है 
चश्मे दिल से देखें अगर सब हर्फ़ की तासीर है

हर्फ़ में जिन्दादिली रख कई शाहेआलम बन गये 
अल्फाज़ के मुफलिसी से बिगड़ा सैकड़ो तकदीर है 

तल्ख़ लहजे लब्ज के,उकूबत है अपने आप में 
जाबित सख्शियत हर दौर में पाता रहा जागीर है 

हर हर्फ़ जो निकले जुबाँ से बस शान्ति का पैगाम हो
"राजीव" नेकी कर सदा बस यह सही तदबीर है 

राजीव रंजन मिश्र 






घासन पात पर
माखन सन चून!
तइ परसँ जौं
होइ कथ दुगून!
रूचि  अनुरूपे
होय जरदा देल!
ताम्बुल कतरल
आर किवामक मेल!
सिनेहे  सजाओल
गुलाब जल फेटल!
एहन आनन्द ने
दोसर भेटल!
मुहँ मे जाइते
अलगे शान!
हाँ यौ बाबू
ई थिक पान
मिथिला मैथिल 
केर पहचान!

राजीव रंजन मिश्र