Wednesday, December 12, 2012


जाङे की गर बात करें तो बड़ा सुहाना ठंढा लगता है
फितरत के कारण बेमौसम हर रिश्ता ठंढा लगता है 

बात करें क्या हालातों की देखी जो हर महफ़िल में
होठों पर मुस्कान लिए जग दिवाना ठंढा लगता है

लिये ठोस जज्बात हृदय में निर्धन शीत से बेगाना है
सुख समृद्धि के कम्बल से लिपटा बेचारा ठंढा लगता है 

खुद सोयी जो गीले में,उसके खातिर पूस की रातों में
उस माँ के प्रति व्यवहार पुत्र का सारा ठंढा लगता है 

“राजीव“ नहीं है कठिन जरा भी सहना मौसम के जाड़े को
व्यवहार शिथिलता देख मनुज में दुष्कर सा ठंढा लगता है

राजीव रंजन मिश्र 

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