Sunday, November 25, 2012


हिंदी गजल 

एक जमाना था जब बस नाम ही परचम हुआ करते थे 
उस ज़माने में कहाँ नाम के लिये तिकड़म हुआ करते थे 

लोग पहचाने जाते थे साफगोई के कारण ही समाज में 
कहाँ हर जुबाँ पर सस्ते इश्क के सरगम हुआ करते थे 

इश्क तो प्रेमी युगल के वास्ते बस मजहब के समान था 
नहीं वो वक्त के साथ बदलता हुआ मौसम हुआ करते थे 

हीर राँझा,लैला मजनू,शिरी व फरहाद भी पछता रहे होंगे 
उसूलों के वजह से ही तो उनपे जुल्मो सितम हुआ करते थे

इश्क में उनके एक गजब की मिठास थी वफादारी की यारों
हिसाबे महफ़िल से नहीं उनके बदले हुए नज़्म हुआ करते थे 

मोबाइल और फेसबुक बनी है नये दौर में दरगाह-ए-इश्क
कहाँ तो एक से निभाके बेचारे आशिक बेदम हुआ करते थे 

जिसे देखो वही है इश्क को रस्सी समझ मजबूती से थामे हुए
मगर सच है कि ये कभी इंसानियत का फलक्रम हुआ करते थे

"राजीव" हैरान है  इश्क की सरेआम नुमाइंदगी देख कर आज
इश्क तो इत्र नहीं यारों जख्म-ए-दिल का मरहम हुआ करते थे 

राजीव रंजन मिश्र 

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