Sunday, November 25, 2012


गजल-१५ 

किछु ने किछु त' आब चमत्कार हैबा क चाही 
चाहे एहि पार आ कि ओहि पार हैबा क चाही 

टूटल लचरल आब रहब कतेक दिन 
संगठित होमय क सहयार हैबा क चाही 

आब ने एहि तरहे बीतय निसि-वासर यौ 
नेन्ना सँ बुढक मुहें ललकार हैबा क चाही 

माय बहिन बेटी कए मुहें आब सगरो सँ 
रणचंडी सन गर्जल हुंकार हैबा क चाही 

सहैति रही ने आब बुरिबक बनि बैसल 
ठामहिं ठाम जूल्मक प्रतिकार हैबा क चाही 

मुहें टा सए ने मैथिल बनि रही एकसरे
मिथिला मैथिल सन व्यवहार हैबा क चाही 

भेटत ने अधिकार बिना संघर्ष बुझि राखु 
जन गन में पाबै क' उदगार हैबा क चाही 

होईक सभक संग सभतरि सँ सभ रुपे 
मुदा क्षण भरि में नै घनसार हैबा क चाही 

छोट पैघ आ उंच नीचक आब छोड़ू भाभट 
सबहक एक सन अधिकार हैबा क चाही 

साल पैसठंम बीत रहल स्वतंत्र कहाँ छी 
सरिपहूँ स्वतंत्रताक नियार हैबा क चाही 

कहय "राजीव" नै हमरा सँ त' अहीं स बरू 
मिथिला आ मैथिल केर उद्धार हैबा क चाही 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१७)

राजीव रंजन मिश्र 

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