Tuesday, January 31, 2012

किछु लोग नहि जानि कियाक?
घर सँ समाज सँ,
क्रित्य स आवाज़ स!
अपना आप के नुकबति,
मुख्या धारा में आबय स बचाबति!
नित सदिखन एहि सोच में रहति छथि,
ई ऐना होयतई,ओ ओना होइतई!
क्यओऊ अबितैथि अलादीनक चिराग लय क़,
हम टिका-टिप्पणी टा करितहुं,मूदा अनदेखार रहितहूँ!

बंधू लोकनि! की आहाँ के नहि लागति अछि?
जे हमरा लोकनिक ई सोच,
अपना आप के देखार करवाक प्रति संकोच!
एक मात्र कारण थीक,जे सब चीज अछैत,
हम सब रुपे ठुकरायल छी,हंसिया पर आबि बईसलl छी!
अपना-अपना धुनि में रहिकय,सब किछु हराय आयल छी!

आ, जौं आहाँ मानति छी?
त आबु डेग बढाबी,
अलग रहबाक सोच छोरि,देखार होयबाक संकोच छोरि,
बंधू लोकनि आबु एक संग,निज आत्मज्ञान के खुरपी स कोरि!
फहराबी हम एहि ध्वज के,संकल्पक ओहि रस्सी स!
जे झुका सकय नहि क्योऊ,टिका-टिप्पनिक हँस्सी स!

----राजीव रंजन मिश्र
  २६.०१.२०१२


Monday, January 23, 2012

लहलहाते खेत और,
खलिहान की वो रंगिमा!
वो मनोरम दृश्य,
और सूरज की वो लालिमा!
दिल को लुभा जाती है,
मेरे गाँव की वो भंगिमा!

हर तरफ खिलते हुए,
मदमस्त फूलों की छटा,
फसलों को देती ताजगी,
बादल की वो काली घटा!
दिल को देता है झूमा,
मेरे गाँव की वो भंगिमा!

चिंता से कोसो दूर,
और प्रपंच का न कोई चिन्ह है!
शहरों की दूषित हवा से,
हर तरह वो भिन्न है!
तन को सबल कर देता है छण में,
मेरे गाँव की वो भंगिमा!

चिर-सुपरिचित लोग और,
वात्सल्य उनके प्रेम का!
जी को कर जाता है विह्वल,
अमूल्य भेंट उनके स्नेह का!
जीवन को नित देती है उत्प्रेरणा,
मेरे गाँव की वो भंगिमा!

---राजीव रंजन मिश्र 
१३.०१.२०१२

हर एक क्षण उसी का,
सपना संजोये होते है!
हर एक पल को अपने,
उन पर लुटाये होते हैं!
दिल में एक झूठी आस लिये,
कि जब वो जवान होंगे!
रखेंगे ख्याल हमारा,
और हमारे खास होंगे!
पर,जब वो जवान होते है,
और कुछ करने की बारी आती हैi
तो बरी बेरुखी से मुंह मोड़कर,
औरों का दामन थाम लेते है!
हर वक़्त स्वार्थ में डुबे,
अपनी मजबूरी जताते है !
पर त्रासदी तो देखो इस जहाँ की,
'बेटा' ही अपना कहलाते है!
और दूसरी तरफ,
जब से वो कोख में आयी!
जाने या अनजाने ,
बस गैर ही कहलायी!
हर चीज और दुआं भी, 
बंटते-बँटाते सब में!
बची-खुँची ही,
उसके हिस्से में आयी!
यूँ हर तरह से,
संयमित जीवन को जीते हुए!
जब जवानी की,
दहलीज़ पर आती है!
तो बड़े शान-शौकत से,
किसी अनजाने को,
सौंप दी जाती है!
इन सब के बावजूद,
हर परिस्थिति में ढलते हुए,
जब भी मौका आता है,
तो एक नहीं ,
दो-दो माँ-बाप के प्रति,
अपना फ़र्ज़ निभाती है!
पर,हाय रे ये दुनिया,
'बेटी' फिर भी,
परायी ही कहलाती है!

---राजीव रंजन मिश्र
१६/११/२०११


रात के सन्नाटे को,
चीड़ता हुआ एक पथिक!
अपने ही धुन में मगन,
मिलने को आतुर अपने प्रियवरों से!
चला जा रहा था बेधड़क ,
दिल में कई सपने संजोते हुए!
इस बात से बेखबड़,
कि सपने संजोये नहीं जाते!
वो तो पूर्वनियोजित होते हैं,
किसी सर्वशक्तिमान संचालक के द्वारा!
फिर भी यह छुद्र मनुज कहाँ मानता,
बेहिचक,बेफिक्र हो मनमानी करता!
बस एक पल की बात थी,
टकरा गया सामने से आती हुई क्रूर सच्चाई से!
बिखर गये सपने सारे,
उसके अपने और समग्र परिवार के!
ख़ामोशी को झंझोड़ती  हुयी ,
उसकी दर्दनाक चीख भी!
दहला ना सकी जरा भी,
कुदरत के उस घिनौने  मजाक को!

------अपने प्रिय बंधु स्व. विनोद(गुड्डू) तिवारी के पथ-दुर्घटना में हुए निधन पर,शोकाकुल ह्रदय से निकले दो शब्द!!
राजीव रंजन मिश्र 
१३.०१.२०१२

घर के बड़े -बुढे,
गर सोच के देखा जाय तो,
पेड़ की डाली से लटके हुए,
पके आम की तरह ही होते हैं!
एक ओर,
अगर सम्हाला जाय,
उन्हें हर तरह से,
प्रकृति के झंझवातों से,
तो नित नये रूप से,
स्वाद  दिलाते हैं,
एक सुघड़ व रसीले,
जायके की!
और,दूसरी तरफ!
एक मामूली सी ,
पत्थर की ठोकर भी,
काफी होती है,
उन्हें मजबूर हो,
समय से पहले,
टपक कर गिर जाने को!
कुसमय,अधपके रूप में टूटकर,
सुनसान कर, गुलशन से चले जाने को!

---राजीव रंजन मिश्र 
१३.०१.२०१२

Wednesday, January 18, 2012

हर वक्त बीतने  वाला,कुछ देकर ही जाता है!
हर मोड़ छुटने वाला,एक राह नया लाता है!
हर फूल टूट कर डाली से,एक कली नया लाता है!
हर एक पवन का झोंका,मधुबन को मह्काता है!


हर शाम ढले,रात आती,सन्नाटा छा जाता है!
हर सुबह सबेरे,सूरज आकर,मन ताज़ा कर जाता है!
हर दिन बीत कर,क्रमशः,एक साल बीता जाता है!
हर साल गुजरने वाला,एक वर्ष नया लाता है!


आओ! हम सीखें इनसे,और दृढ संकल्पित  हो कदम बढ़ाएं!
नव उमंग,नव चेतन मन से, शुभ नव वर्ष मनाएं! 




----राजीव  रंजन मिश्र 
०१.०१.२०१२ 
  




जो भी किया हो,दर्द पर शिकवा नहीं किया!
हमने कभी भी ,वादों पर भरोसा नहीं किया!
ठुकरा दी हमने ,बार-बार जन्नत की पेशकश!
ईमान बेच कर,कभी भी सौदा नहीं किया!


खुदा के रहमत का,हम भी हैं हक़दार!
इश्वर ने कभी भी,अपना-पराया नहीं किया!
गम के समन्दरों, में उतरता  चला  गया !
दुःख सहता रहा,उन्हें उलीचा नहीं किया!


कुछ लोग ग़मों के वास्ते ही,बनते हैं,ऐ मेरे दोस्त!
गम पर कभी भी हमने,उफ़ तक नहीं किया!
ढाओ  सितम मजबूर पर,तुम तफरीह के लिये!
ये जान लो की जिन्दगी,मैंने तेरे नाम कर दिया!





हँसता रहा हु अब तक,
कुछ देर मुझे अब रोने दो!
पाता रहा हूँ अब तक,
कुछ तो मुझको अब खोने दो!
देख चूका मधुमास मै तेरा,
अब पतझड़ को आने दो!
गुलशन तेरा मै हो आया,
अब सहरा हो आने दो!
बगिया में तेरे कई फूल सही,
मेरे दामन में कुछ भी तो नहीं!
फूलों कि माला पाया न पिरो,
अब काँटों का हार पिरोने दो!
नादाँ था,खुशियों कि चाहत थी,
अब तो कोई भी चाह नहीं!
किस्मत से समझौते के शिवा,
दूजा तो,कोई भी राह नहीं!
अफ़सोस न कर ऐ 'मीत' मेरे,
कुदरत पे किसी का जोर नहीं!
दिल को,तसल्ली  तू दे ले यूँ,
विधि के विधान का तोड़ नहीं!


१९/०१/१९९५








बेवफा तेरी याद आती है,
जिंदगी के उदास रातों में!
बेड़ियाँ सी पर गयी है,
अब तो अपने ही हाथों में!
साया भी अपना मुझसे,
दामन छुड़ा रहा  है!
दीवाना हूँ इस कदर कि,
पागल बना रहा है!
हँसता किसी को देखूं,
सोंचू रुला रहा है!
नादाँ न जाने क्यूँ कर,
क़यामत बुला रहा है!
खुशियों से जैसे दिल को,
नफरत सी हो गयी है !
हर वक्त मौन रहना,
फितरत सी हो गयी है!
चाहत यही है मेरी,
कि,तेरी याद यूँ ही आये!
तुझको कभी न भूलूं,
भले जान मेरी जाये!


१९/०१/१९९५ 






देखता ही रहा,मै य़ू ही हर हमेशा!
                    खुशियाँ आई मगर मुस्कुरा न सका!!
कहने को तो,चमन खिल रहे थे मगर!
                  हार फूलों का फिर भी पीरों न सका!!
मन में कुढ़ता रहा,अपने किस्मत पर मगर!
                   खुल कर जुल्मो-सितम पे रो न सका!!
थी मयस्सर मुझे,सेज फूलों की मगर!
                    नींद अमन चैन की फिर भी सो ना सका!! 
तनहा कटता रहा,जिंदगी का सफ़र!
                     अपना कोई हमारा हो ना सका!!
तहे दिल से,जीवन में चाहा जिसे!
                'मीत' उनके ही दिल को भा ना सका!!
---राजीव रंजन मिश्रा 'मीत'
    १३/०२/१९९५