Sunday, December 30, 2012

कर दूर हृदय में छाये गम  को नूतन इतिहास रचाओ बेटी
हम आज खड़े है साथ तुम्हारे तम को उठ दूर भगाओ बेटी

वो चली गयी,होकर प्रताड़ित कुछ कलुषित निर्मम हाथों से
तुम सोच सचेतन निर्मल मन से हर एक कदम बढाओ बेटी

एक शपथ उठाओ अन्तर्मन में,करो आप को आंदोलित तुम 
बन दृढ प्रतिज्ञ व्यवहार कुशल जनमानस में छा जाओ बेटी

हैं पुरुष मात्र ही नहीं लुटेरे नारी के अस्मत और लज्जा की
जड़ चेतन से भरा जगत है,परख सको वह दृष्टि जगाओ बेटी

शर्मिंदा है हर चेतन मन,है झुका शीश बाप,भाई और बेटे का
हो सके अगर तो हे ममतामय !अब और हमें न लजाओ बेटी

पर ध्यान रहे हे सृजन कारिणी! निष्फल ना हो यह बलिदान
"दामिनी"बनकर अब नरदानव पर उचित कहर बरपाओ बेटी

है नारि जगत की अनुपम रचना,नारि नहीं तो फिर श्रृष्टि कहाँ
निज भृकुटि तान कड़े शब्दों में समुचित प्रतिकार जताओ बेटी

है सुनी पुरानी बात यही,अधिकार दी नहीं छीन ली जाती है 
निज बुद्धि विचार और कर्मों से अब विजय पुरुष पर पाओ बेटी  

छोड़ो सुनते रहने की आदत,निज बातों को तुम कहना सीखो
"राजीव" असाध्य व मर्यादित रह,हर पल झंडे फहराओ बेटी 

राजीव रंजन मिश्र 






Tuesday, December 18, 2012


पिछले कुछ दिनो से अजीबो गरीब हालात का सामना करना पर रहा है,कल हठात् मेरे दिल मे यह बात आयी कि हम अक्सर हालात की दुहाई देते रहते हैं मगर हालात/परिस्थिति हम मनुष्यों के बारे में क्या सोचती होगी,चन्द पंक्तियाँ खुद हालात के शब्दों में ....मेरे ज्ञान के हिसाब से !
परिस्थिति जो
स्वंय बनाये गये
हो के लाचार
उसी में फँसकर
कोसते रहे मुझे !
जुबान पर
सुनाई दे सबके
आदर्श बातें
पर व्यवहार में
सब के सब वही!
हाँ,मिले चन्द
वीर गाहे बेगाहे
अपने बूते
सम्हाल कर मुझे
निश्चिंत कर दिया!
वो फूले फले
हर दौर में चले
बाधाएँ हारी
राह छोङ उनके
राहु केतु भी भागे!
ओ बुजदिलों!
सुन लो बात मेरी
सामना करो
डँट कर मुझसे
मुझे मौका न देना!
क्योंकि दोस्त
मैं हूँ तुम्हारे कर्मों
का प्रतिफल
प्रारब्ध मात्र तेरा
हूँ मै निर्विकार!
राजीव रंजन मिश्र 
घासन पात पर 
माखन सन चून!
तइ परसँ जौं
होइ कथ दुगून!
रूचि अनुरूपे
होय जरदा देल!
सुपारी कतरल
आर किवामक मेल!
सिनेहे सजाओल
गुलाब जल फेटल!
एहन आनन्द ने
दोसर भेटल!
छी बड्ड रसगर
ताम्बुल नाम!
मुहँ मे जाइते
अलगे शान!
हाँ यौ बाबू
ई थिक पान!
मिथिला मैथिल
केर पहचान!

राजीव रंजन मिश्र

जीवन में हालात हमेशा खेल गजब दिखलाती है
कभी हंसाये कभी रुलाये और कभी तड़पाती है 

हँसते मुस्काते हम अक्सर रहते बेगाने कल से 
पलक झपकते हालातें बेदम हमको कर जाती हैं

दिखे निरंतर लोग लगे कुछ बेहतर कर जाने में 
मगर बङे ही मीठे ढंग से नियति सदा चौंकाती है

है कौन यहाँ जो बतलाए,क्या छिपा हुआ अगले पल में
यह कालचक्र तो सदियों से मानवता को भरमाती है

क्या रजा क्या रंक यहाँ हाल सभी का एक सामान 
ऊँगली पर हालात सभी को जमकर नाच नचाती है 

हालातों पर नहीं रहा है "राजीव" कभी भी वश अपना 
नियति को मान कर चलना अकलमंदी कहलाती है 
राजीव रंजन मिश्र

Wednesday, December 12, 2012


दोस्ती बेशकीमती
सौगात है कुदरत का,
छोटी छोटी बातों से
तुनक कर
फना नहीं होती।

ये अलग बात है,
मेरे दोस्त!
कि हरएक शख्स में
इसे निभाने की
कला नहीं होती।

राजीव रंजन मिश्र 

हमेशा यही बस कहानी रहेगा
सदा हर गम से बेगम जवानी रहेगा 

दिलों को जो जिते दिलकश अदा से
जिन्दगी में उसी के रवानी रहेगा 

आह दिल की न लेना कभी तुम ऐ दोस्त
फिर चहकता सदा जिन्दगानी रहेगा

खामोश लब हों और चाक चौकस निगाहें
दुर तुझसे हर हमेशा नादानी रहेगा 

दिल में" राजीव" न रखना अदावत किसी से
बेशक खुदा का तुझपे मेहरबानी रहेगा

राजीव रंजन मिश्र 
रातों में नींद सुकून की देती प्यारी कव्वाली शीत काल की 
मन को सदा रिझाने वाली बात निराली शीत काल की 

ग्रीष्म की मेहनत और वर्षा के सींचे बीज के दाने को 
परवान चढ़ा मंजिल दिलवाती सदा दिवाली शीत काल की 

कुछ काँप रहे थर थर तो कुछ रहे शीत को माप रहे 
खट्टा मीठा अहसास दिलाती हर पग मतवाली शीत काल की 

कहीं छलकती मदहोशी तो ठिठुर रहे हालात कहीं
महसूस करें गर दिल दिमाग से हम बदहाली शीत काल की 

मजबूत इरादे पुख्ता सोचों का र्संगम हो बस जीवन में
"राजीव" निखारे रूप सदा मौसम दिलवाली शीत काल की 

राजीव रंजन मिश्र 



जाङे की गर बात करें तो बड़ा सुहाना ठंढा लगता है
फितरत के कारण बेमौसम हर रिश्ता ठंढा लगता है 

बात करें क्या हालातों की देखी जो हर महफ़िल में
होठों पर मुस्कान लिए जग दिवाना ठंढा लगता है

लिये ठोस जज्बात हृदय में निर्धन शीत से बेगाना है
सुख समृद्धि के कम्बल से लिपटा बेचारा ठंढा लगता है 

खुद सोयी जो गीले में,उसके खातिर पूस की रातों में
उस माँ के प्रति व्यवहार पुत्र का सारा ठंढा लगता है 

“राजीव“ नहीं है कठिन जरा भी सहना मौसम के जाड़े को
व्यवहार शिथिलता देख मनुज में दुष्कर सा ठंढा लगता है

राजीव रंजन मिश्र 

अब मैं यह कैसे बतलाऊँ
किसको मैं कैसे समझाऊँ
हृदय यंत्र जो झंकृत कर दे
स्वर बीणा वह कैसे लाऊँ
अब मैं.....................
राग द्वेष का लेश नहीं हो
आपस में कोई क्लेष नही हो
सत्य मात्र का हो अभिनन्दन
वह परिवेश कहाँ से लाऊँ
अब मैं ..................
छलक रहे हैं भाव कलश
फरक रहे हैं सब नस नस
शोणित का अब मान रहे बस
वह सम्मान मैं कैसे पाऊँ
अब मैं...........
समृद्ध धरा हो हर लिहाज से
आलोकित नित नव चिराग से
मानवता चहुँ ओर प्रखर हो
वह प्रकाश किस विधि फैलाऊँ
अब मैं.........
मानस भावों का हो अनुमोदन
सहज भाव समुचित अन्वेषण
निष्कपट रूप निश्छल मन से
यह गीत सदा मैं गाता जाऊँ 
अब मैं.........
है चाह यही बस परमप्रभू से
बैमनस्य हो दूर मनुज से
प्रेम भाव निखरे कण कण में
परिमार्जित वह संसार  बनाऊँ
अब मैं......................
राजीव रंजन मिश्र 


अगर सोचने पर आयें हम तो बातें हज़ार हैं 
ये बात और कि हम किस हद तक तैयार हैं
 
भूख के सौ चेहरे दिखते रहते यहाँ दिन रात 
बेशक हर एक के मगर अपने तीमारदार हैं 

दो रोटी नहीं मयस्सर कहीं भूख मिट़ाने को
खा-खा कर दिन रात मगर लाखों बीमार हैं  

कुछ करने की भूख को सिद्दत से संजोकर   
"कल्पना" दिखें जाते हुए अन्तरिक्ष पार हैं  

प्रेम और सौहार्द के भूखे मासूम भटक करके  
इंसानियत को "कसाब" बन करते शर्मसार हैं 

कहाँ तक गिराता इन्सान को वासना की भूख
"कोली" और "पंढेर" के भी हमें हुए दीदार हैं 

"राजीव" मिटायें भूख को बजाय हम बढाने के 
दिन जिंदगी के यहाँ मिलते गिने-गिनाये चार हैं 

राजीव रंजन मिश्र 


अक्सर दिखते हैं
सङक के किनारे
फुटपाथ पर
बढी हुयी दाढी व
मैले कुचेलै वस्त्रों मे
कई विपन्न इन्सान
प्लास्टिक के थैली मे
किसी रेस्तरां के बाहर
फेकें गये खाद्यान्नों के
जूठन को समेटे
पेट भरने को खाते
बङे ही निर्विकार भाव से
अपना भूख मिटाते!

घर घर में है देखा
बच्चों से बूढें तक को
जिह्वा के चाटुकारिता
के वज़ह से कुछ खाते
व अधिक व्यंजनों को
नाले में बेदर्दी से गिराते
बिना एक पल ठहर कर
सोचे हुए कभी भी
कि दुनियां में बेहिसाब
किस्मत के मारे लोग
तरसते हैं ,
मुठ्ठी भर दाने को
अपना भूख मिटाने को।

हम यह मानें कि पेट की
भूख बढाने या दबाने की
चीज़ नहीं बल्कि,
मिटाने की चीज़ है
क्यों ना हम सब
दाने दाने को बचाएं
तन व मन से भरे
लोगों को ठूस-ठूस कर
खिलाने के बजाय
उन बेबस भूखे
गरीबों को खिलायें
जो कि हैं मोहताज़
उनकी क्षुधा मिटायें। 
राजीव रंजन मिश्र    

जरा सी बात क्या कह दो वो आपे से बाहर हो जाएँ 
गुले गुलफाम जो कह दो वो अपने में शायर हो जाएँ 

इंसानियत तो आजकल बिकती है चंद सिक्कों में
लूटा दो हाथ से पैसे चुनाव में हर कोई जवाहर हो जाएँ 

सच बोलने की खफा क्यों करता है कोई आज के इस दौर में 
ऐसा न हो कि उनके रहमो करम से बेवस व कातर हो जाएँ 

जहाँ देखो वहीं एक हवा सी चली है बातों में सफेदपोशी की 
बस एक मौका लगे जों हाथ तो सब "राजा" के बिरादर हो जाएँ 

किसे पड़ी है आज कल भला इस देश और समाज की "राजीव"
सभी को सोचग्रस्त देखा कि बस कैसे दरिया से सागर हो जाएँ 

राजीव रंजन मिश्र
जिंदगी के सफ़र में जो मेरे हमराह हैं 
जाने क्यूँ नाराज़ वो इस कदर खामखाह हैं

फासला बढ़ता गया हर कोशिशों के बावजुद 
अब तो ढूंढे हल न दिखता टेढ़ी-मेढ़ी राह हैं 

ऐ खुदा मुझको बता किस बात से है वो खफा 
इक बार तो ये जान लूं कि वो कौन सा गुनाह हैं

जन्नत मिले उनको जिन्हें थी आरजू उस बात की 
चंद लम्हें पाऊँ सुकूँ के बस यही एक चाह है 

क्यों मुन्तजिर बैठा है तू पलके बिछाये राह में
मिलता नहीं है हर किसी को "राजीव"वाह-वाह है 

राजीव रंजन मिश्र 
20.11.2012  

किस किस से मैं बैर करूँ अब मेरे वश की बात नहीं 
बहुत लगें हैं चोट जिगर पर और नया आघात नहीं 

कौन सुने अब इन किस्सों को और उठाये नाजो नखरे
दिल-ए-नादान के जज्बातों के आज सही हालात नहीं 


कश्ती जो उतारी थी हमने सागर के मचलते लहरों में
तूफान से सीना टकराया,थे कौन यहाँ मुश्किलात नहीं

मशगुल रहा करते थे हर पल दुनियां भर की बातों में 
हाले चमन के क्या कहने थे डाल मगर कोई पात नहीं

"राजीव" न रहना बुत बनकर पर गर्व भरी ना बातें हों 
बुजदिल जीतेंगे समर भूमि को उनकी ये औकात नहीं  

राजीव रंजन मिश्र 
20.11.2012

ये मत पुछो उनके पिछे रात गुजारी हमने कैसे
पुछो मेरे घायल दिल से घात किया मिल सबने कैसे

पत्थर इस दिल पर रखकर चलते रहे अंगारो पर
गाज गिरी थी अरमानो पर संजोये अब सपने कैसे

चोट थी उनकी सख्त बङी और शीशे का दिल मेरा
क्या बतलाऊँ झेले हमने हैं जीवन में अङचने कैसे

उस संगदिल के क्या कहने जो चाक जिगर के कर डालेे
देख वो लेते काश पलट कर बहते आँखो से झरने कैसे

बिगङा कुछ भी नहीं अभी “ राजीव" सम्हल जा अब भी तू
जिनके दिल मे अहसास नहीं उनसे लङने और झगङने कैसे 

राजीव रंजन मिश्र 

Sunday, December 9, 2012


रंज-ओ गम के अफसाने ये,चाक जिगर के कर जाते हैं!
हंसी कहाँ मिलती होठों पर जख्म दिनो दिन गहराते हैं !

बस एक हंसी के खातिर उनके जाने कितने कुर्बान हुए
बेदर्द ज़माने की ठोकर खाकर अब तो हँस कर भरमाते हैं !

कोई तड़पता है हंसने को और कोई तड़पाये आप हँसी को
जाने आप तड़प कर तड़पाने में लोग भला क्या पाते हैं !

बात चली जब जब गुलशन में खिलते कलियों के रंगत की तो
झूम उठा हर ब्याकुल मन जैसे सात सुरों के सरगम लहराते हैं !

पाक इरादे रखना "राजीव" और निगाहें बस मंजिल पर
औरों का गम बांटने वाले हर वक्त यहाँ मुस्काते हैं !


राजीव रंजन मिश्र

उनका आना यूँ कहो कि गुलशन को सजा गयी
उनके जाने से लगा जैसे फिजा सी छा गयी

नजरों का उठना मैकदों को दे गयी चुनौतियाँ
पलके उठाकर फिर गिराना दिल जिगर चूरा गयी

लब का खुलना यूँ लगे जैसे बजे शहनाईयाँ
उनकी चुप्पी या खुदा दिल पर कहर सी ढा गयी

संगमरमर सा बदन और नजाकत हुस्न की
महफिल में उनकी पेशगी बस कयामत आ गयी

“ राजीव" उल्फत चीज ही है पेचीदगी भरी हुयी
दीवानगी का आलम ना पुछो जीन्दगी शरमा गयी 

राजीव रंजन मिश्र 


मुरलीवाले तेरी बंशी,जग से नाता मेरा सब तोङ गया रे
कान्हा प्यारे तेरी नजरें तुझसे नैना मेरे बस जोङ गया रे

तेरी झाँकी बङी ही निराली  भावे मन को हे शयाम गिरधारी
तेरी अनुपम छटा मोहन मुझको चाहत में करके विभोर गया रे

तु है नटखट  बङा मनमोहन,तेरे कजरारे चंचल दो नैनन
बनके भोला तु साँवरिया,दिल को मेरे चुरा चितचोर गया रे

सूना सूना है बिन तेरे गोकुल,खोयी रहती है खुद में सखियाँ
हो के निष्ठुर तु राधारमण,ब्रज की गलियों को जबसे छोङ गया रे

है बस चाहत यही इस दिल में,तेरे चरणों में मिट जायें“ राजीव"
ले ले अपने शरण में तु, दुनियादारी मुझे झकझोर गया रे

राजीव रंजन मिश्र

बाल गजल-10
बाल दिवस पर प्रेषित अछि एक टा बाल ग़ज़ल !!
हम नेना मोनक सतगर छी
हम नेना बलक जोरगर छी

छी हम सराहल सभ तरहे
चच्चा नेहरूक पियरगर छी

ने मोन मे हमर छल प्रपंच
हम सुच्चा सोचक दमगर छी

माटि पाइनक' खेलल कुदल
हम नेना देहक बलगर छी

बालो हम जगदानन्द भाखल
तै माटिक हम कपरगर छी

मिथिला मैथिली शान हमर यौ
से बातक हम ठेकनगर छी

“ राजीव" मनाबैथ बाल दिवस
नेना भुटका लेल मोनगर छी
सरल वार्णिक बहर, वर्ण संख्या-12
राजीव रंजन मिश्र

जिक्र उनकी हुयी जो महफिल में
इक कसक सी उठी मेरे दिल में

सोये अरमां उठे ललायित हो
कोई जज्बा नहीं थे संगदिल में

मैं वो नादां  था ऐ मेरे मालिक 
जिसका था एतबार कातिल मेँ

किसको कहते जफा,वफा क्या है
फर्क का इल्म नहीं था काबिल में

किसको हासिल हुयी है क्या राजीव
क्यों लगा है किसी के हूक्म तामिल में

(.......बात जब भी उठी बहारों की)


राजीव रंजन मिश्र 

ये कहो तुम कि सनम
प्यार है कितना मुझसे
ये न कहना कि
मुझे प्यार है जितना तुमसे
क्यूँ भला याद सताती तेरी
यही मैं पूछ रहा हूँ खुद से
हुस्न तेरा है कयामत ढाती
पिघला जाऊँ  मै तेरे इश्क के बारुद से
ये जीवन चार दिन की है मिली राजीव मानूँ मैं
तुझे पा लूँ तो फिर क्या वास्ता जहन्नुम से

राजीव रंजन मिश्र 

ये दिल कहता है कि इन झील सी
आँखो मे बस डूब जाऊँ मैं
जमाने भर के सारे गम को
हंस के भूल जाऊँ मैं
तेरी जूल्फे घटा सावन सी लहराती
इजाज़त हो तो इनमे खो महबूब जाऊँ मैं
यही ख्वाइश है दिल मे कि तुझको पाऊँ
तुझे पाकर जन्नत से भी हो भले मरहूम जाऊँ मैं
लगे प्यारा तु जीवन मे ऐ मनमीत मेरे
तेरी बाँहों में आ राजीव बन मासूम जाऊँ मैं

(ये आँखें देख कर हम साड़ी दुनियां भूल जाते है)

राजीव रंजन मिश्र 

छोङी सभटा मोन मोटाब आउ मनाबी दीया बाती 
त्यागिक' सभटा भेद भाब आउ सजाबी दीया बाती

देखू बरष आर एक बीति रहल छै धीरे धीरे
सीखी समयसँ हम अहाँ आउ बनाबी दीया बाती

खेली सगरो सब हूक्का लोली संगे मिल सभगोटे
नब सोच आर उमंगसँ आउ जगाबी दीया बाती

बानि विवेक राखि मनुख सन चली सदिखन टा
किछु काज करी हम अहाँ आउ कहाबी दीया बाती

मंगल सभकँ होएक दिवाली कही मुहँस  याह
राखी मोनसँ मोन मिलाकँ आउ समाबी दीया बाती

जगमग मोन करै ने टोले घर टा बस “ राजीव"
ग्यान आ संस्कारक तेलसँ आउ जराबी दीया बाती
(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-19)
राजीव रंजन मिश्र 

हे प्रभू ! नजरें फिराना अब जब कभी संसार में 
इन्सां को बस इन्सां बनाना बात और व्यवहार में 

दामन छुड़ा कर जी रहे हम आजकल इंसानियत से 
जज्बातों का न कोई मोल अब इस कलयुगी बाज़ार में 

बस एक ही है सोच कि कैसे खुदी को कर लूं बुलंद 
बाँकी बची न निष्ठा किसी की अब कोई संस्कार में 

भ्रष्ट हो गये पंडित और मौलाना भी हैं काफ़िर हुए 
ढूंढे मिले ना सत्य कहीं क्या मंदिर क्या मजार में 

"राजीव" जब तब सोचता है देख कर चारो तरफ  
किसको भला है क्या मिला इस बेवज़ह तकरार में 

राजीव रंजन मिश्र 


लाजमी है उनका खफा होना बात नहीं ये भारी है
यह दोष है मेरे फितरत की सुनना तो लाचारी है 

वो चाह लिए बैठें हैं बस झूठी तारीफें सुनने की
मुझको हर हाल में यारों सच बकने की बीमारी है

खामोश जुबाँ और बन्द निगाहें रखना ही है काबिलियत
जो जितना है खोट भरा वो उतना ही बेहतर व्यापारी है

खुद रहे भले बस एक जगह,वो क्यूँकर आगे बढ़ जायेंगे 
स्वभाव दोष के कारण ही तो उलझन जीवन में सारी है 

सामने तारीफ के सौ बातें पीछे से शिकायत लाखों में 
"राजीव"जहाँ की रीति यही,कहलाती यह दुनियादारी है  

राजीव रंजन मिश्र 




यूँ इस कदर चाहत दिखाना बात कुछ अच्छी नहीं 
हरदम शोखियों से मुस्कुराना बात कुछ अच्छी नहीं 

माना कि उल्फत चीज़ है बेहद जरुरी ऐ जनाब 
मेहरबानी कुछ यूँ जताना बात कुछ अच्छी नहीं 

बेशक तमन्नाओं का होना लाजमी है जिन्दगी में 
गर ना मिले तो टूट जाना बात कुछ अच्छी नहीं 

हुस्न को देती नफासत है हया,जान रखें मोहतरमा
जलवा सरे महफ़िल दिखाना बात कुछ अच्छी नहीं

रिश्ता बड़ा ही पाक है "राजीव" हुस्न और इश्क का 
इनकी नुमाईश कर दिखाना बात कुछ अच्छी नहीं 

राजीव रंजन मिश्र 


भजन-गजल 
मन को मेरे मोह गया तू साँवली सूरत सांवरिया रे 
कानो में रस मिसरी घोले कान्हा तेरी बांसुरिया रे 

और न अब कुछ देखूँ  मैं तो यह जग लागे बेगाना सा  
चारो ओर दिखे बस तू ही कर गया मुझको बावरिया रे 

प्रेम में तेरे मैं मनमोहन भटकूँ ऐसे सुध बुध खोकर
तेरे एक दरस को जैसे व्याकुल ब्रज की छोहरिया रे 

डूबा तेरे चाह में मोहन मैं कुछ ऐसे हे यदुनंदन 
भूल के जैसे तन मन अपना डूबे जल में गागरिया रे 

होऊं मगन मैं हे मुरलीधर  देख के तेरी लीलाओं को 
और न अब कुछ दिल ये चाहे नाचे बनकर पामरिया रे 

तेरा दर्शन नित दिन होवे तेरा ही श्रृंगार करूँ बस 
बैठ निहारूं तुझको लाला झलता जाऊं चांवरिया रे 

मंगल तेरा निशि दिन गाऊँ तेरा ही गुणगान करूँ मैं  
"राजीव" नाम रटूं बस तेरा शाम सबेरे दुपहरिया रे 

देखूं मैं जिस और सखी री सामने मेरे सांवरिया 

राजीव रंजन मिश्र 

आओ हम सब मिल कर के,मानवता का दीप जलाएँ
प्रेम भाव को दीया बनाके,दीपशिखा सी ज्योत जलाएँ 
साथ रहें हम सभ एकत्रित,रखें आपस में सहयोग परस्पर
फिर तो जीवन के पथ में ,खुद मिट जायेंगी बाधाएं दुष्कर
मांग यही है आज समय की और यही एक उचित विकल्प
समय गवां फिर हाथ क्यों मलना,अविलम्ब हम लग जाएँ 
आओ हम सब मिल कर के----------------------------------
साल और एक बीत रही,फिर से आई वही दिवाली है 
जगमग दीप जले हर घर में पर हर दिल जैसे खाली है
हाथ मिलायें वक्त से हम और दृढ संकल्पित डेग भरें
आलोकीत हो नव प्रकाश से नूतन एक समाज रचाएँ
आओ हम सब मिल कर के-------------------------
सोचे सब मिल चूक हुयी क्या,क्यों धूमिल सारे स्वप्न हुए
क्यों उन्माद उठी है मन में तन से हम क्यों शिथिल हुए
मंहगाई आकाश छू रही पर संसाधन बस दिख रहे अल्प हैं 
मेहनत और लगन से अपने जनजीवन को सफल बनाएँ 
आओ हम सब मिल कर के-------------------------
अशेष शुभकामना दीपों के इस मंगलमय अवसर पर सब को 
बच्चों को स्नेह,बधाई मित्रों को और सादर चरण स्पर्श बड़ों को
है विनय यही इस अवसर पर आचरण को परिमार्जित रख कर  
बुद्धि-विवेक के दीया-बाती से छाये अज्ञान तिमिर को दूर भगाएँ 
आओ हम सब मिल कर के-------------------------
राजीव रंजन मिश्र 

मैथिलि गजल 
सुनू सभ मिलिकं ई बात बड  कमाल अछि 
खस्सीक जान जै आ खैवय्या बेहाल अछि 

देखब जहाँ सगरो भेटत याह बात टा यौ 
जे निचा देखा दोसराकं दुनिया नेहाल अछि

जगत आब कोनो रूपे विवेकिक रहल ने 
संस्कार आजुक दिनमें जानक जपाल अछि

पुरुषक आनि कहै होई छैक बड्ड जरूरी
जुवनकाक बात छोडू बुढ्बा बवाल अछि 

मांगि चांगि सगरो सए बेटाकं पढौता सभ 
ने परवाह किनकों जौं धिया फटेहाल अछि 

देखब विचारि बात जौं सभ गोटे सत सत
बेटीये गुमान राखैथ बेटा माल-जाल अछि

"राजीव"हल ऐ बातक कोनो ने सुझा रहल 
लोक चहुँ दिसि सगरो धेने नबताल अछि 
(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-17)

          "दिया जलाये रखना"

हर वक़्त तुम मुसाफिर,निर्भय हो चलते रहना!
प्रभु प्रेम-पालने में,तुम निश्छल हो पलते रहना!!
राहें कठिन भी हो गर,बस जज्बा बनाये रखना!
मन में सदा संघर्ष की,बस दीया जलाये रखना!!

हो हर तरफ अँधेरा और सहस्त्र बन्धनों का फेरा!
निज आत्मज्ञान को तुम,तम से बचाये रखना!!
उस ज्योति प्रकाश-पुंज पे,निगाहें टिकाये रखना!
मन में सदा लगन की ,बस दीया जलाये रखना!!

हो घोर विषम समस्या व करना पड़े कठिन तपस्या!
विचलित ना कर ह्रदय को,दृढ आशा बनाये रखना!
दिल के सुमन को तुम बस,हर पल खिलाये रखना!
मन में सदा समर्पण की,बस दीया जलाये रखना!!

अयेगा दिन वो भी,जब सब मंजिल भी प्राप्त होंगे!
थक-हार अड़चने भी,स्वयं लज्जित परास्त होंगे!!
पर उस वक़्त भी मुसाफिर,मस्तक झुकाये रखना!
मन में सदा संयम की,बस दीया जलाये रखना!!



----राजीव रंजन मिश्र 

ख्वाब सुहाने सारे अक्सर टूट जहाँ मे जाते हैं
वादे वफा के करने वाले छूट जहाँ मे जाते हैं
लाख मुसाफिर आये चलकर पथरीली राहों से
अपना मान रहे जिनको वो लूट जहाँ मे जाते हैं
जिनके खुशियों के खातिर भेंट चढा दी चाहत की
वही वक्त पर दिखा अंगूठा बन रंगरूट जहाँ मे जाते हैं
सोच भी सारे फिके पङते वक्त की बहती मौजों मे
बिरले ही मिलते जग मे जो बन संपूट जहाँ मे जाते हैं
चाहे जितना संयम बरते हम सब दुनियादारी  मे
मिलते चंद ही रिश्ते हैं जो रह एकजूट जहाँ मे जाते हैं
ब्यर्थ भला क्यों करते “राजीव"चाह सभी कुछ पाने की
पल पल संजोये स्वर्णकलश भी फूट जहाँ मे जाते हैं
राजीव रंजन मिश्र
कसमे वादे प्यार वफा सब ..............

मैथिलि गजल 

ई बात कोना कहू कि बात की भेलय 
ई राग कोना फेर हठात की भेलय 

जखन भी बात कोनो अहाँक उठल
नहिं जानि कोना जे बसात की भेलय 

सभक्यौ पलटि गेला बातसं कहल 
राति कहैथ किछु परात की भेलय 

सभ काज करै सगरो मदमातल 
ने पुछु निकहाक बिसात की भेलय 

दही जन्मैत  अछि बिलारिक हाथे 
कहत के देशक जिरात की भेलय 

सभ भागि रहल नीक गुण छोडिकं 
शुभ रात्रि छोडू सुप्रभात की भेलय  

"राजीव" ने जानि कतय जा थम्हत ई
ब्याहलक छोड़ू मसोमात की भेलय    

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-14)


दिन पलटतय एक दिन आँहा आस लगेने रहब
मोन जुरेतय विधना बस आँहा बाट सजेने रहब

टाका पैसा गहना गुङिया काज ने दए अहिंठाँ ककरो
बात विचार ब्यबहार आँहा बस नीक बनेने रहब

दुनिया कनय छैक सभतरि अपनहि खातिर ऐठाँ
लोकक नीक बेजाय मे आहाँ बस हाथ बटेने रहब

बड्ड काज करय छैक बुढ-पुरानक आशीष वचन
डेग डेग पर सभकँ आशिर्वाद संग समेे ने रहब

बहुत कठिन छैक आइ काल्हि चलब अहि महि पर
बुद्धि विचार  विवेक अपन सभ ठाम बचेने रहब

नांगरि झाङिक' चलब जगती पर चालि छी कुकुरकँ
टोल परोसक हक हिस्सा लेल  आबाज जगेने रहब

कैलहा सभटा बिसरत “राजीव" आहाँक लोक अपन
अप्पन आनक ने बोध राखि बस रंग जमेने रहब
(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-21)
राजीव रंजन मिश्र 

कब तक दोष देकर किस्मत को
इस कदर यूँ भरमाओगे खुद को
कहाँ तक पत्थरों को पूज कर ही
दिन रात बस बहलाओगे खुद को
यह चक्र तो चलता रहेगा हर घङी
बदलता रहेगा सदा खुदगर्ज जमाना
नियति है इस भरे संसार मे दोस्त
आदमी का आदमी से दुर हो जाना
स्वयं को भूला कर चल दिये हम
मदमस्त होकर एक राह पर ऐसे
नहीं रहा कोई भान सही गलत का
खुश रहे मानवता छोङ कर जैसे
चिखती रही इंसानियत बेतहाशा
सुनते रहे हम निजसुख का तराना
नियति है आदमी..................

देख जगत की रंगत को आँसू सा ढलते रहते हैं
सात सुरों के सागर मे हर वक्त मचलते रहते हैं

टीस कभी जब उठती है पीङा से कातर मन में
औरों के गम देख हमेशा संयत हो चलते रहते हैं

रखें निर्मल सोच अगर व बात विचार में शालीनता
फिर होनी-अनहोनी में भी इन्सान सम्हलते रहते हैं

जोर नियति पर नहीं किसी का क्या राजा क्या रंक
मगर लगन व मेहनत से तकदीर बदलते रहते हैं

तक़दीर नहीं बस तदबीर की बातें हैं यह सब प्यारे
जैसा कर्म व्यवहार रखें हम वैसे ही पलते रहते हैं

पलटें गीता कुरान बाइबल या ग्रन्थ साहिब के पन्ने
कर्म ही जीवन भाग्य नहीं निष्कर्ष निकलते रहते हैं  

है दृढ विस्वास यही“राजीव"दिल के हर कोने में
साथ दुआँए हो गर अपने हर संकट टलते रहते हैं
राजीव रंजन मिश्र 

दिखे कई रूप  दुनिया के
सभी खुद मे निराले थे
गुजर कर दुर्गम राहों से
पङे पाँवो मे छाले थे
मिले कुछ लोग खुसठ तो
कई हँसमुख दिलवाले थे
सच बोलने की नौबत पङी जो
तो पाया जुबाँ पर बन्द ताले थे
बातें सदा हँसकर ही करते
मगर दिल के बङे ही काले थे
चमन उजङा पङा था पर
सभी खुशफहमियों को पाले थे
“ राजीव" मुफलिसी का आलम न पुछो
रोटी की तो बात छोङो पड़े जज्बातों के लाले थे
राजीव रंजन मिश्र

चलय बड्ड मारूक पुर बा  छै
बजय बड्ड काजुक बुढबा छै
बात करै पाकल सन एहन
लागय रटल सब सुगबा छै
धिया पुता कए तेज करयला
मारै सभतरि सभ ठुनका छै
गोय  राखल तरे तर सभटा ै
बाजै ने आजुक मुहँनुकबा छै
लागल सगरो फुसियाबय मेे
काजे टा याह साँझ भोरूकबा  छै
कैल धैल बूरिलेल सभक आ
भोगय सभटा बूझनुकबा छै
संच मंच भए बैसल काबिल
नचबै सभकँ खूरलुचबा छै
“राजीव" ने देखै दिन पलटैत
लागै सपना भुकभुकबा छै
छप्पन प्रकार हौक एक दीस
अजब सुअदगर भुसबा छै

लोक कहैत छै बड्ड महगाइ छैक
चारि टकामॅ त मनुख बिकाइ छैक 

रहल ने कोनो मोल सतक आब त'
आइ लोकक त माय बाप पाइ छैक

जमाना खराब केहन आबि गेल यौ 
याद ने रहै ककरो बाप भाइ छैक

लागल सभ एक दोसराकँ पाछू छै 
बूझि ने परै जे कथिक लड़ाइ छैक 

पूजा करैत देखि पिक्की पारैछ लोक
छाती फूला मुदा पाशीखाना जाइ छैक 

"राजीव" ने जानि कोन जुग आबि गेल
सभ एक दोसरकँ लूझि खाइ छैक 



(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१४)
राजीव रंजन मिश्र 

सखी वो तान मुरली की,
तुम्हें कैसे सुनाऊँ मै,
मधुर मुस्कान कान्हा की-2
तुम्हे कैसे दिखाऊँ मै !
सखी वो................
वो बंशी जब बजाते हैं
कि गौऐँ दौङ आते हैं
वो मुरली की मधुर धुन पर-2
सब कुछ वारि जाऊँ मैं!
सखी वो...............
वो वृन्दावन की गलियों मे,
वो बरसाने की महलों मे,
बङे ही प्यार से मोहन-2
सखाओं को नचाते हैं!
सखी वो................
सुदामा के गले लगकर,
उसे तिहुंलोक देते हैं,
अचम्भित हो पङी रूक्मिणि -2
सखा ये कौन आया है!
सखी वो..............
कभी वो रण मे अर्जुन को,
कभी वो प्रिय युधिष्ठीर को,
सखा धर्म निर्वहन करना-2
स्वयं निज मुख बताते हैं!
सखी वो.................

बढ़ाते चीर द्रौपदि का
बचाते गज को आ कर के,
वो कैसे भक्त के खातिर -2
खुले पग दौङ आते हैं!
सखी वो...........
सुनो "राजीव" जीवन में,
सखा बन जाएँ कृष्णा तो,
कटे भव सिंधु का बंधन -2
यही ग्रंथन बताते हैं !
सखी वो...............
राजीव रंजन  मिश्र 

दोस्त! अगर मानी जाय तो एक बेहतरीन आनंद है 
आज के दौर में दिखती मगर एक बेतरतीब छंद है

दोस्त मजहब दोस्त मकसद दोस्त ही तो है जिन्दगी 
मिलता मगर ऐसी मैत्री करने व निभाने वाला चंद है  

बदलते लिबास की तरह दोस्त बनायें जातें हैं आज
कभी जरुरत जो कोई आ पड़ी तो दिखा जुबान बंद है

कहाँ तो कृष्ण-सुदामा व राम-सुग्रीव की मैत्री सुनी थी 
पर आज तो बस अपने फायदे के लिये सब फिकरमंद है

जिस हिंदुस्तान में विभिन्नता में एकता हुआ करती थी
उसी देश में जाति-धर्म के नाम पर फैली मार काट द्वंद है

दो घड़ी की मुलाकातें व चंद अल्फाजों के सिलसिले 
इनके बदौलत ही हर कोई दोस्ती का ख्वाहिशमंद है   

खूबसीरती को कौन भला पूछता है अब यहाँ जालिम 
दोस्तों के नाम पर बस सभी को खूबसूरती पसंद है  

न जाने क्या क्या बना रखा है हमने दोस्ती को आज 
न उम्र की लिहाज रही न कोई भी कहीं अहसानमंद है   

"राजीव" देख कर आज सखा धर्म की हालत यहाँ 
हो रहा नित दिन इंसानियत का भी हौसला मंद है 

राजीव रंजन मिश्र 

बहुत हुआ कोलाहल अब शांति सुधा रस पाने दो 
बहुत रहा बेगाना  स्वयं के हेतु मुझे अब जीने दो 

बहुत चखा हूँ जाम ख़ुशी के जीवन के मदिरालय में  
भूल जगत की मिथ्या रस निज अश्कों को पीने दो

तार तार हो रहे कल्पना और सोच हुई है तितर बितर 
अब समेट पीङित भावों को चिंतन के धागे से सीने दो 

देख लिया मधुमास तेरा मदमस्त बसन्त भी हो आया 
भाये ना चमन के फूल कोई भी अब पतझड़ को आने दो

श्रृंगार नहीं वो रस जिसके खातिर मै दर दर भटक रहा था
"राजीव" लेखनी के बल पर मानव के सोये पुरुषार्थ जगाने दो
राजीव रंजन मिश्र   

माय जौं घर सम्हारैथ त' बाबू बिचला खाम छैथ
धिया पुताकँ बनबै लेल साम दंड आ दाम छैथ

सहि कए सभटा अपना पर सभ हाही विरबा
बाल बच्चाकँ लेल बहबैत अपन ओ घाम छैथ

उप्पर मोने सक्कत बनि रहथि मोन मारि कए
मुदा कनिको कष्ट देखिते ठाढ ओ सभ ठाम छैथ

माय बाबूक कहल ने मानल जौं सखा संतान त'
बुझि राखैथ  निश्चित्ते सभ रूपे विधना बाम छैथ 

"राजीव" देखल बाबूकँ आ बाबू बनि बूझैथ आब 
बाबू हैब कठिन छी ई ने बस एकटा नाम छैथ 
(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१९)
राजीव रंजन मिश्र 

धिया पुताक आस पिता छैथ
सत मोने विस्वास पिता छैथ

नीक बेजैक बोध कराबैथ
आगुक पूर्वाभास पिता छैथ

खने पितैल आ स्नेह करैत
सुन्नर खटरास पिता छैथ 

जनैथ बूझैथ दुनिया दारी
जीबैकँ विन्यास पिता छैथ 

धिया पुताक कुचालि देखिक'
मोने भेल उदास पिता छैथ

सखा संतान फूलै फलय जौं 
धर्म कर्मकँ बास पिता छैथ 

"राजीव" पिताकँ मानैथ बड
पिताक रूपे खास पिता छैथ

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-11)

राजीव रंजन मिश्र 

गजल २४  


जौं कष्ट भरल ई पीर फारि सकल ने छातीकँ
औकाते फेर कि छैक दू चारि अक्षरक पातीकँ

पढि लिखि जौ मिटा सकल ने अज्ञानक अन्हार 
की मतलब छै तहन सभ दिन दिया बातीकँ

सभ कहैथि आ सुनैथि बस आदर्शक बाते टा
कर्म कए ने मिटा सकल क्यौ करेजक सातीकँ

बैस मंच पर सभ करय जैतुकक विरोध
तानि छाती ल दहेज़ नियार करै बरियातीकँ

मत सुन्न समाज सभ तरहे भेल छै आजुक  
कहै ने एक्कहुं आखर क्यउ केहनो आघातीकँ

आब बूढ पुरान कँ किएक गुदानैथ किन्नहुं
सगरो छै आइ राज बनल नबका उत्पातीकँ

"राजीव" छगुन्ते ताकि रहल सभ कृत्य हिनक
आस लगौने अंत लगचियाल छी खुराफातीकँ

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण -१८) 
राजीव रंजन मिश्र      
        

गजल २३ 
कहियो अहि माटि पर पूजल जैत छली नारी
अइयो धरि घर कए सम्हारैत रहली नारी

रहल सभ दिन एक्कहि टा रूप नारी कए यौ
सहल सभ पीर चुप्पे कहियो ने तनली नारी 

कहियो सजाओल जैत छल देह पर गहना
आजुक समाज में मुदा सभ रुपे लूटली नारी

जन्म लेली माटि सए जाहि देश में जनकसुता 
ओहि ठाम कुकृत्यक कारने लाजे गरली नारी

ओइल सधेबाक नव रूप देखबा में आयल
अंग अंग कटवा कए धरा पर खसली नारी

जानकी द्रौपदी अहील्या अनसुईयाक गाम में
नित सभ तरहे कष्टक मारल सीझली नारी

"राजीव"जगाबैथि अहि माटिक माय बहिनकँ 
कहिया धरि सहती सभटा बनि पुतली नारी 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१८)
राजीव रंजन मिश्र 

आओ,अभिमन्यु पुकार रहा,
फिर से तुमको यह युधस्थल!
फैला है हर कदम-कदम पर,
मकड़-जाल सा मायावी रिपु दल!!
अर्जुन का तीर और गदा भीम की,
हो दिग्भ्रमित! शांत पङे हैं निश्चल!!
सुन सको अगर तुम इस पुकार को,
तो होगा विदीर्ण हृदयस्थल!!
हर ओर मची है मार-काट,
पी रहा है मानव हालाहल!
हो रही छीण हैं आशाएँ,
अति पीड़ित है ये धरातल!!
आओ, हे शूरवीर!
फिर एक बार,चक्रव्यूह भेदन को!
पर,सीख अवश्य  तुम लेना,
अब पूर्ण रूप से छेदन को!!
और,ध्यान रहे इस बार ओ प्यारे,
कि साथ रहे कल-बल और छल!
आओ,अभिमन्यु पुकार रहा,
फिर से, तुमको यह युधस्थल!!
---राजीव रंजन मिश्र

गजल-
दैव हौ लीखल हम एक टाक' देखल
राम हौ घटना सभतरि जाक' देखल

पाबिकँ सभटा चीज जगत केर लोक
बौरल आ अपने हाथ हराक' देखल

गज भरि ने छोङल ककरो कखनहुँ
मुदा निज करमे थान गवाँक' देखल

खन भरि मे आकाश चढल बोल बजै
दोसरे खन छल माथ खसाक' देखल

छल सभ तरहे निक हेबाक जकर
तकरात' राखैत डेग बचाक' देखल

हँसै गाबै सदिखन "राजीव" मगनभ'
भेटत नइ किछु नोर बहाक' देखल
(सरल वर्णिक बहर,वर्ण-१५)
राजीव रंजन मिश्र

कभी लगें है फूल सरिस तो 
कभी बने हैं अंगारे ये आंसू 
जिवन के इस भाग दौड़ में 
करते हैं वारे- न्यारे ये आंसू 

हो घडी ख़ुशी की फिर भी तो 
आँखों में आ ही जाते हैं आंसू
गम के दौरां भी नैनो के रस्ते 
बादल बनके बरसाते हैं आंसू 

कभी किसी से मिलकर ये बहते 
तो कभी किसीके बिछड़ जाने से 
मूक जुबाँ से सब कुछ कह जाते 
आकर ये नित एक नये बहाने से 

कुछ लोगों का साथ इन्हें है भाता 
और कुछ तो बढ़ कर इन्हें बूलाते
निश्छल और निर्भय जीने वालों को 
जग में कम ही पाया है इन्हें रुलाते 

दुनिया देती आयी है मान सदा ही 
लोगों के बहते आँसू पीने वालों का
औरों के जीवन से दुःख दर्द मिटाके 
जीने वाले सहृदय वीर मतवालों का 

औरों को गम देकर जीने वाले ही  
खलनायक  हरदम से कहलाते हैं 
हम देखें अगर पलट के पन्नो को 
गीता कुरान बाईबल यही बताते हैं 

राजीव रंजन मिश्र

एहन नै कि हमरा प्रेम ने आबैत अछि
एहनो नै जे हमरा स्नेह ने धारैत अछि
छी हमहुँ मनुख आ पुरूषत्वो अछि  पुरे
मुदा देखि सुनि हाल मोन ने लागैत अछि
दुखक  मारे सगरो कानि रहल छै सभ
प्रेमक राग अलापी मोन ने मानैत अछि
छोङिक' ने बानि मनुखक नांगरि डोलाबी
ताहि लेल त' माल जाल टा कहाबैत अछि
कामिनि नारि पियारि छी हमरो निश्चिते यौ
मुदा समाजक संग बेसी लोभाबैत अछि




हों अमीर या गरीब के दिखने में तो एक सा ही होते हैं आँसू  
इतेफाक की बात है मगर कभी हँसते तो कभी रोते हैं आँसू

एक अदद सी बूंद भी किसी के आँखों की जलजला सा लाये
हासिल हुई ना कुछ भी उन्हें रो-रो कर बस्ती डुबोते हैं आँसू

है बदनसीबी शुमार जिनके हालत ए जिन्दगी में बरखुरदार  
वो गुजरते हुए हर एक पल में बड़ी संजीदगी से बोते हैं आँसू 

मुस्कुराहटों की बस्ती में रहा है सदा से निवास जिनका यारों 
भला वो क्या समझ सकेंगे क्या पाते और क्या खोते हैं आँसू

बेरहम दिल पर कभी होता नहीं है असर बिलखने का किसी के 
संवेदनशील लोगों को मगर अक्सर तेज़ खंजर चुभोते हैं आँसू  

हालत-ए जीकर भी करना निहायत बेमानी है आज के दौर में  
बेवशी के आलम में हर कदम पर खून की घूंट पी सोते हैं आँसू  

ये बात और है कि खुदा ने किसके मुकद्दर में क्या लिख रखा था 
नफ़रत में हो या मोहब्बत में आँखों को सदा ही भिगोतें है आँसू  

छोड़ "राजीव" तू इस कदर भला क्यूँ करता है दिलखराश अपना 
मत भूल हरेक जख्म-ए-तालीम को बड़े शिद्दत से संजोते है आँसू

राजीव रंजन मिश्र 



गजल ३३ 

आँखिक पिपनी झुकल सन
गालक लालिम रंगल सन 

स्नेह पर ककरो ने चलल 
मोन लगै अछि बेकल सन 

झुकल नैन उठैब हूनक 
तीर चलाबै मारल सन 

हिरनी सनकँ चालि चलैथ 
आँखि रहै छैक फारल सन 

केश हुनक डाँर तक झूलै
बुझाय मोन छै बान्हल सन 

देखि हूनक लटक झटक 
साधु संत सब डोलल सन

"राजीव"हमहूँ छी मनुख यौ 
कखनो क' छी बहकल सन  

(सरल वार्णिक बहर.वर्ण-११)

राजीव रंजन मिश्र 

गजल ३२ 
टूटल अछि करेजक बल सम्हारब आब कोना हम
फेटल अछि सिनेहक छल निमाहब आब कोना हम 

सोचल छल बड्ड किछु बात मोनहि गोए राखल सभ
देखल सभ सपनाक क्षण जोगारब आब कोना हम 

थम्हल जहन पवन कर तेज विर्रो तहन बुझलौं
भरल सभतरि छल्ह गर्दा बहारब आब कोना हम 

छलौं हम आसमँ सदिखन हवाक कोण बदलत यौ
लागल आगि सघन सगरो मिझायब आब कोना हम 

बैसल आब सबहक सुनि रहत चुप नै "राजीव"
मारल मोन कचोटक पल गुजारब आब कोना हम

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-२१)
राजीव रंजन मिश्र 

गजल ३१ 
सत्त बाजब जौं आसाने रहितइ
मनुक्खताक नहिं माने रहितइ

सरल  मोने सोचैत सभ सगरो
त कि सभ झूर झमाने रहितइ

देखि सुनि सभटा मोनक सोचल 
कहै पयगण्ड कि जाने रहितइ

खटल रहैत अखाड़मँ त छूछ्छो
अगहन कि खरिहाने रहितइ

मेल जोल जौं राखिकँ चलैत सभ
जीवन में सब ओरियाने रहितइ

भाबी भबतब जौं नीके चाहैत त'
सभ मिलि एक्कहि प्राणे रहितइ

अपने  दुःख सन बूझैत सभकँ
तखन लोकक कल्याणे रहितइ

लड़ल अपना में  सभ दिन हम 
से नहिं त कि अवसाने रहितइ 

डाँरि पारि ने बइसी आबहुं कहि
जे जिनगी एक समाने रहितइ

"राजीव" गोय राखल सभ मोनक
सोचि सभ जौं एक्के ताने रहितइ

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१३)

राजीव रंजन मिश्र 

गजल ३० 

सभ किछु सोचि हारल छी 
अपने मोनक  डाहल  छी

बड्ड देखल लोकक बानि
हियाउ छोरिक भासल छी

जूरा सभकँ चलल हम 
मुदा करेजक मारल छी 

दैव घर ने अन्हेर छैक
याह टा भरोस राखल छी 

रौदी धाही ने सभ दिनका 
कष्टक दिनत' गानल छी 

सुख-दुःख छांह रौद जकां   
सुधि लोकनिक भाखल छी 

"राजीव"अछि संतोष राखि 
तैं यौ सरकार बाँचल छी  

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१०)

राजीव रंजन मिश्र 

गजल २९ 

अहि जग केर सभटा रीती बिरल छै
नहिं सत केर कत्तहु मोल रहल छै

चहुँ दिस सभ बाँझल थिक अनेरोक
नहि आब ककरो कोनो होश बचल छै 

सभ आइ प्रेम करय छैक चाहत ला
स्नेह बाटक सभटा नीति बिसरल छै 

देखि लोकक स्वार्थ भरल चालि प्रकृति 
निक मनुख सभ चुप भए बैसल छै 

छूछ्छो शाने घुमि रहल लोक सांढ बनि 
मनुखता छोरि क' माल जाल बनल छै 

सत केर नहि आब गुजारा कोनो रूपे 
झूठक खेल सभ बान्ह तोरि बढ़ल छै

गाछी बिर्छी खेत पथार सभ सुखैल जै
समय साल देखि क' राजीव बेकल छै

(सरल वार्णिक बहर वर्ण-१५)

राजीव रंजन मिश्र