Monday, November 7, 2011

टूट गया है दिल का दर्पण,

टूट गया है दिल का दर्पण,
बिखर गए है सारे सपने!
परख चूका हूँ सरे जग को,
क्या बेगाने और क्या अपने!!
रूठ गयी है किस्मत अपनी,
फूल भी अब अंगार बने!
आंसू भी अब सुख चुके है,
सिला दिया है जो उसने!!
अरमानो का उठ गया जनाजा,
दिल की महफ़िल सुनसान हुयी,
क्या कहिये उस पतझर को जिसमे,
अपनी बगिया वीरान हुयी!!
आ पहुंचा हूँ उस चौराहे पर,
जहाँ  ख़ुशी की भान नहीं,
'मीत' मोहब्बत में हर एक को,
मिलता है ईनाम यही!!
---राजीव रंजन मिश्रा
१३/०२/१९९५

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