Wednesday, November 9, 2011

जीवन!


जीवन! तप्त धरातल पर,संतप्त,
अनवरत,अंगार बरसते!
खुद को शीतल करने की,
चाहत में नित चलते रहने!
एक बूंद की आहट सी पाकर,
चौकन्ना होकर,पाने की लालसा में दौढ़ना!
गिरना,सम्हलना,फिर उठना,
और बिन रुके प्रयास में लगे रहना!


क्या.. यही नहीं है जीवन ?
हर रोज़ एक नए सूरज के किरण के साथ,
नए जोश-खरोश के साथ चलने कि कहानी!
दिन ढलते,सूरज के डूबते किरणों को,
आँचल में समेटे और सुनाते अपने दर्दे-जूवानी!
क्या.. यही नहीं है जीवन ?
यूँ चलते,कुछ पाते,कुछ खोते,
कभी हँसते, कभी रोते!
निज-आपसे,संघर्ष करते,
चिर निद्रा में सो जाने कि कहानी!
क्या.. यही नहीं है जीवन ?
---राजीव रंजन मिश्रा
 १०.०६.२०११

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