Wednesday, November 9, 2011


दुर जाकर भी मै दुर जा न सका,
तेरी यादों को मै भुला न सका!
तू ने तो दिल के कर दीये टुकरे,
तेरी तस्वीर मै जला न सका!
घर में कुछ इस तरह अँधेरा था कि,
खुद को मै रौशनी में ला न सका!
आंसुओ का भी जिन्दगी में कभी,
बोझ पलकों पे मै उठा न सका!
यूँ तो क्या रह गया है आँखों में,
तेरा चेहरा मगर गँवा न सका!
पतझर में भी हँसना चाहा सदा,
बहार-ऐ-महफ़िल में भी मुस्करा न सका!
जीत लेटा जिंदगी के हर एक जंग को,
अपने दिल को ही मै हरा न सका!
उसको चाहा बर्री ख़ामोशी से,
'मीत' जिंदगी के सफ़र का बना न सका!
-----राजीव रंजन मिश्रा

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