Sunday, November 20, 2011

"दिया जलाये रखना"





हर वक़्त तुम मुसाफिर,निर्भय हो चलते रहना!
प्रभु प्रेम-पालने में,निश्चल हो पलते रहना!!
राहें कठिन भी हो तो,जज्बा बनाये रखना!
मन में सदा संघर्ष की,दिया जलाये रखना!!

हो हर तरफ अँधेरा,और बन्धनों का फेरा!
निज आत्मज्ञान को तुम,तम से बचाए रखना!!
उस ज्योति प्रकाश-पुंज पर,निगाहे टिकाये रखना!
मन में सदा लगन की ,दिया जलाये रखना!!

हो घोर विषम समस्या,जो करना परे तपस्या!
विचलित ना कर ह्रदय को,आशा बनाये रखना!
दिल के सुमन को हर पल,खिलाये रखना!
मन में सदा समर्पण की,दिया जलाये रखना!!

अयेगा दिन वो भी,मंजिल भी पास होंगे!
थक-हार अरचने भी,हो लज्जित,परास्त होंगे!!
पर उस वक़्त भी मुसाफिर,संयम बनाये रखना!
मन में सदा ही प्रेम की,दिया जलाये रखना!!

----राजीव रंजन मिश्र 
१६/११/२०११




Saturday, November 12, 2011


दूर  जाकर भी मै दूर  जा न सका,
तेरी यादों को मै भुला न सका!
तू ने तो दिल के कर दिए  टुकऱे,
तेरी तस्वीर मै जला न सका!
घर में कुछ इस कदर  अँधेरा था कि,
खुद को मै रौशनी में ला न सका!
आंसुओ का भी जिन्दगी में कभी,
बोझ पलकों पे मै उठा न सका!
यूँ तो क्या रह  गया है आँखों में,
तेरा चेहरा मगर गँवा न सका!
पतझर में भी हँसना चाहा सदा,
बहार-ऐ-महफ़िल में भी मुस्कुरा न सका!
जीत लेता  जिंदगी के हर एक जंग को,
अपने दिल को ही मै हरा न सका!
उसको चाहा बऱी  ख़ामोशी से,
'मीत' जिंदगी के सफ़र का बना न सका!
-----राजीव रंजन मिश्रा

Wednesday, November 9, 2011

"माता"


                           
जी चाहता है मेरा माता,मै नमन तुझे सौ बार करूँ!
है भान नहीं तुझको, मै कितना तेरा सम्मान करूँ !!
इश्वर प्यारा है मुझको,है इश्वर कि सत्ता प्यारी!
पर कैसे बतलाऊँ तुझको, तू है दुनिया भर से न्यारी!!
रंग -रंग के फूल खिलाकर, इश्वर ने दुनिया का चमन बनाया!
आजीवन आभारी हू तेरा,मुझको इस गुलशन का राह दिखाया!!
है चाह यही अब इस जीवन में,जब-जब देह धरुं धरती पर!
तेरा ही पावन कोख मिले,हो जन्म मेरा बस तेरे ही घर!!
दे आशीष मुझे माता,बस तेरे नाम का हवन करूँ!
जी चाहता है मेरा माता,मै नमन तुझे सौ बार करूँ!
                                             -राजीव रंजन मिश्र
                                                   २०/१२/१९९४
  

गम न करो दोस्त!
आज जो वक्त,किसी और का है,कल,हमारा भी होगा!
पर सोचना यह है कि,क्या वो वक्त हमे गंवारा भी होगा!!
नदी कि बहती धारा सी,बहना तो हमे है ही!
वक्त को अपने हाथों,कैद करना तो हमे है ही!!
उंचे-उंचे पर्वतों सा,सर हमें भी उठाना है!
राहों से अपने पत्थरों को,चुन-चुन कर हमें हटाना है!!
जीवन रुपी सागर में,कई नदियाँ आकार मिलती है!
सुख-दुख से पालित होकर,कई रंग कि बगियाँ खिलती है!
पक्षियों सा  पर फैलाकर,उरः -उरः कर कहना चाह्ते हैं!
आजाद देश के आजाद जमीं पर,हम आजाद रहना चाह्ते है!!
हमारे जैसा एक नही,कई-कई हजार हैं!
हम सलामत रहे,वो सलामत रहें,इश्वर से प्रार्थी और खुदा के खिदम्तगार हैं!!
---मै नही जानता कि ये रचना,मैने किन परिस्थितियों मे की i इसके उदभव पर मै अत्यन्त आश्चर्यचकित हूँ i
                                                                                                                        --राजीव रंजन मिश्रा

                                                                                                                          २४/१०/१९९३

ज़माने ने बदल डाले,सभी रिश्ते सभी नाते!
न जाने क्यू,कभी कोई किसीका नहीं होता!!
रुलाये औरो को भी वो,कभी वो खुद भी है रोता!
ऐ काश!वो समझ पाते,कि जीवन बस चार पल का नहीं होता!!

हमें तो आदत सी है,बस रुस्वाईयां ही सहने क़ी!
गर आप कुछ कह भी डालो तो,हम वो भी सह लेंगे!!
ये दिल है दिलखराश इतना,कि कुछ भी असर नहीं होता!
जो कहने को बोलोगे,तो दो-चार लब्ज कह लेंगे!!

: जुस्तजू:

           

जिसे  जुस्तजू थी क़ी जन्नत को पा ले!
जो जन्नत मिली तो खुद खो  गया है!!
कुदरत का , यही है दस्तूर यारों !
किस्मत से आगे,न कोई गया है!!

:इंसानियत:



             



इंसानियत  वो चीज़ है, जो आज के इस दौर में !
मरहूम है अपने ही सख्सियत से!!
खोजता है दिन रात वो, अपने ही पहचान को!
दुनिया के, इस झूठी चकाचौंध में!!

मै चला जा रहा था कही,अपने ही राह पर !
जाने वो कब,कैसे, हमसफ़र बन गए !!
हम तो चलते रहे, बस यूँ  ही रात दिन !
गुलशन में, वो गुलमोहर बन गए!!

पूछो कभी  जलते  दीये की लौ से,
क्यों जल रहा वो इस कदर!
खिलखिला कर बोलेगा वो,
ऐ बन्दे! जलना भी अपने आप में है इक हुनर!!

जीवन!


जीवन! तप्त धरातल पर,संतप्त,
अनवरत,अंगार बरसते!
खुद को शीतल करने की,
चाहत में नित चलते रहने!
एक बूंद की आहट सी पाकर,
चौकन्ना होकर,पाने की लालसा में दौढ़ना!
गिरना,सम्हलना,फिर उठना,
और बिन रुके प्रयास में लगे रहना!


क्या.. यही नहीं है जीवन ?
हर रोज़ एक नए सूरज के किरण के साथ,
नए जोश-खरोश के साथ चलने कि कहानी!
दिन ढलते,सूरज के डूबते किरणों को,
आँचल में समेटे और सुनाते अपने दर्दे-जूवानी!
क्या.. यही नहीं है जीवन ?
यूँ चलते,कुछ पाते,कुछ खोते,
कभी हँसते, कभी रोते!
निज-आपसे,संघर्ष करते,
चिर निद्रा में सो जाने कि कहानी!
क्या.. यही नहीं है जीवन ?
---राजीव रंजन मिश्रा
 १०.०६.२०११

क्यों भला तुम आज मुझको


क्यों भला तुम आज मुझको,यूँ डराते हो !
कभी तुमने ही तो मुझे,निडर बनाया था!!
कही बैठा था मै,सहमा सा,कोने में सिमटकर!
तुम्ही ने तो मुझे हाथो से पकढ़कर,सभी के बीच लाया था!!
मै अकेला,हतप्रभ सा,कौतुहल से देखता ही रहा!
जीवन को जीने कि लालसा में,हर जख्म को सहा!!
और,गुजरते हुए वक्त के साये में,इस भीर में जीना सिखा!
समय के धार में चल कर,जब मैंने भी खरा होना सिखा !!
समय से जूझना सिखा,और सिखा पलटकर वार करना!
तभी तो  मै,खरा हो पाया,इस ज़माने के हिलते डगर पर !!
और,आज तुम,मेरे सामने आकर,मुझे आँखे दिखाते हो!
मुझे मेरे गुजरे पल के साए में खिंच कर ले जाते हो !!
और क्यों मुझे हर बात पर तुम यूँ डराते हो !
क्यों भला तुम आज मुझको,यूँ डराते हो !!
---राजीव रंजन मिश्रा
जनवरी २०११

दुर जाकर भी मै दुर जा न सका,
तेरी यादों को मै भुला न सका!
तू ने तो दिल के कर दीये टुकरे,
तेरी तस्वीर मै जला न सका!
घर में कुछ इस तरह अँधेरा था कि,
खुद को मै रौशनी में ला न सका!
आंसुओ का भी जिन्दगी में कभी,
बोझ पलकों पे मै उठा न सका!
यूँ तो क्या रह गया है आँखों में,
तेरा चेहरा मगर गँवा न सका!
पतझर में भी हँसना चाहा सदा,
बहार-ऐ-महफ़िल में भी मुस्करा न सका!
जीत लेटा जिंदगी के हर एक जंग को,
अपने दिल को ही मै हरा न सका!
उसको चाहा बर्री ख़ामोशी से,
'मीत' जिंदगी के सफ़र का बना न सका!
-----राजीव रंजन मिश्रा

Monday, November 7, 2011

दिल हर एक पे फ़िदा नहीं होता,
हर कोई आपसा नहीं होता!
मुझको तन्हाईयाँ  डराती है,
साथ जब आपका नहीं होता!
मेरे गम का न राज खुल जाए,
इसलिए गम-जदा नहीं होता!
याद करता हूँ अपने खोये पल को,
जब कोई दूसरा नहीं होता!
तुमको नज़रें तलाश करती है,
जब कोई आसरा नहीं होता!
वो शख्सियत भी मेरी मिटा देते,
गर मैं देखता नहीं होता!
हर बुलंदी को छू के आ जाता,
गर मैं सोचता नहीं होता!
किस तरह तुमको हम भुला पाएंगे,
हमसे फैसला नहीं होता!
जिस्म से रूह कब फ़ना हो जाए,
मौत का 'मीत' कोई पता नहीं होता!
----राजीव रंजन मिश्रा
दुनियां में जीने कि चाहत,
जिस दिन दिल से  मर जाएगा!
ठीक उसी दिन रे मानव,
तेरा जीवन खुशियों से भर जाएगा!!
जब तक चाह रहेगी खुशियों की,
तब तक तू दुःख पायेगा!
खुशियों की तमन्ना करना भी,
वैसे तो कोई गुनाह नहीं!
पर सोच हमेशा जीवन में,
गम की भी कोई परवाह नहीं!!
खुशियाँ गर मन को सुख देती है,
दुःख भी राह दिखाती है!
जीवन के इस वक्र डगर पर,
चलने का ढंग सिखाती है!!
फूल सभी को भाते  हैं,
पर कांटे भी दामन में आते है!
फूलों को दामन में ले ले पर,
कांटो को भी न यूँ फेंक सही!
न जाने कब किस राह में,
वो कांटे पग में चुभ जाय कही!!
खुशियों में गर तू मुस्काता है,
गम में भी खुश रहने की आदत डाल!
फिर देख फाँस नहीं सकती तुझको,
कभी जमाने की माया जाल!!
जिस हद तक खुद को ख़ुशी बनाना चाहे,
उस हद तक सबकी खुशियाँ चाह!
फिर तो जीवन के हर एक मोर पे,
मिल जाएँगी तुझको खुद ही राह!!
जीवन के इस वक्र धरा पर,
है कच्ची पक्की राह सही!
पर बाजू में जिनके काबू है,
उनको कोई परवाह नहीं!!
सुगम रास्ते पर चलना,
संसार में सबको भाता है!
कंकर-पत्थर से भरे डगर पर,
स्वाधीन वीर ही जाता है!!
देख पलट कर पन्ने को,
इतिहास हमें बतलाता है!
इस रंग भरे दुनियां में हरदम,
कोई आता कोई जाता है!!
पर याद उसी को करते जगवाले,
जो सहरा में चमन खिलाता है!
अपने सत्कर्मो से जग में,
जो आदर्श बन जाता है!!
कुछ काम करो जग में ऐसा कि,
जगवाले तुमको भी याद करें!
हर वक्त तेरा ही चर्च करे,
तेरे कर्मो की दाद करें!!
जब तक तू जिन्दा रहे जहाँ में,
तेरे जीने की फरियाद करें!
और मिट जाए जब तेरी हस्ती,
याद तुझे तेरे बाद करे!!
"आया है कई,अयेगा कई,दुनियां की है रीति यही!
जाकर भी सबके दिल में रहना,है वीरों की जीत सही!!"
-----राजीव रंजन मिश्रा
२७/१२/१९९४

अब प्रयाण की जरुरत है!!

देख लिया रोशन जंहा तेरा,
                 अब अँधेरे की जरुरत है!
तुफानो में बहुत खेया कश्ती को,
                अब किनारे की जरुरत है!!
बेशुमार सितम सह लिया हमने,
                अब तफरीह की जरुरत है!
बहुत पीये,आँखों ने गम के प्याले!
                अब अश्कों की जरुरत है!!
नुकसान ही सहता रहा हूँ  अबतक,
                अब मुनाफे की जरुरत है!
बोझिल हो गया है 'मीत' ज़माने के गम से!
                अब प्रयाण की जरुरत है!!
---राजीव रंजन मिश्रा
            २२/६/1994
तन है अपना,मन भी अपना!
                   फ़िर् इसमे कोइ बस जाता है क्यो?
दिल मे अपने ही, घर बनाकर!
                    दिल को यू तरपाता है क्यो?
मोहब्बत ही नही,
                     जब्  उसको मुझ् से !
फ़िर् भला खयालो मे,
                     मेरे वो आता है क्यो?
चाहत है जिसकी,
                     नजरे इनायत मेरी!
वो ही भल मुझ् से,
                       यू कतराता है क्यो?
जुबान से अपने 'मीत' वो,
                        इजहार भी करता नही!
दिल को इस कदर जख्म देकर,
                        मुझ् को तरपाता है क्यो?
----राजीव रंजन मिश्रा
      २०/१२/१९९४

कैसी है ये बेकरारी!!

नजरो को मेरे  हरदम,तलाश है तुम्हारी!
मिटती  नहीं कभी जो,कैसी है ये बेकरारी!!
कहने को मैंने पाई दुनिया की खुशियाँ सारी!
पर दिल में छुपाये रखे है,एक अनसुलझी राजदारी!!
सिने में चुभ रही है,एक तीर सी हमारी!
क्यूँ जिन्दगी में मैंने ,हर एक जंग हारी!!
खौफनाक वादियों से,गुजर रही है जिंदगी की गारी!
बेजार हो चली है,हर एक ख़ुशी हमारी!!
सितम लाख चाहे कर लो,अपनी चाहत रहेगी जारी!
'मीत' मोहब्बत में मिट जाने को ही,कहते है दुनियादारी!!
--राजीव रंजन मिश्रा
    १५/०२/१९९५

टूट गया है दिल का दर्पण,

टूट गया है दिल का दर्पण,
बिखर गए है सारे सपने!
परख चूका हूँ सरे जग को,
क्या बेगाने और क्या अपने!!
रूठ गयी है किस्मत अपनी,
फूल भी अब अंगार बने!
आंसू भी अब सुख चुके है,
सिला दिया है जो उसने!!
अरमानो का उठ गया जनाजा,
दिल की महफ़िल सुनसान हुयी,
क्या कहिये उस पतझर को जिसमे,
अपनी बगिया वीरान हुयी!!
आ पहुंचा हूँ उस चौराहे पर,
जहाँ  ख़ुशी की भान नहीं,
'मीत' मोहब्बत में हर एक को,
मिलता है ईनाम यही!!
---राजीव रंजन मिश्रा
१३/०२/१९९५

जिंदगी यूँ ही गुजरती रही

जिंदगी  यूँ  ही गुजरती रही,हंसी वादियों की तरह!
सफ़र कटता रहा ऊँची-नीची राहों से,बलखाती नदियों की तरह!
उम्र ढलता रहा,सोच बदलते रहे!
शूकर है,की मंजिल ना बदली अपनी औरों की तरह!
पर हाँ! जिन रास्तों पर चल के आया मैं!
याद रखा हमेशा, उन कदमो के निशां को!
शहर तो ना बदला,मकान अनगनित बदले!
पर ऐ दोस्त! रेत की मकान बनाने की भूल कर भी ना सोची हमने!

---राजीव रंजन मिश्रा

जिंदगी  यूँ  ही गुजरती रही,हंसी वादियों की तरह!
सफ़र कटता रहा ऊँची-नीची राहों से,बलखाती नदियों की तरह!
उम्र ढलता रहा,सोच बदलते रहे!
शूकर है,की मंजिल ना बदली अपनी औरों की तरह!
पर हाँ! जिन रास्तों पर चल के आया मैं!
याद रखा हमेशा, उन कदमो के निशां को!
शहर तो ना बदला,मकान अनगनित बदले!
पर ऐ दोस्त! रेत की मकान बनाने की भूल कर भी ना सोची हमने!

---राजीव रंजन मिश्रा

दीपो का त्यौहार मनोहर,जगमग दीप जलाएँ!
आओ सब मिल निज प्रयास से,फैला अंधियार भगाएँ!!
हटा ह्रदय में छाए तम को,शुभ दीपावली मनाएं!
नव-स्फूर्ति,नव-चेतन मन से,आगे कदम बढ़ाएं!!

नील गगन

नील गगन के क्या कहने,पहने तारों के गहने!
सूरज चमके मोती जैसा,और चंदा जैसे नीलम-पन्ने!!
हर सुबह बरे निराले मन से,करते सूरज का सत्कार!
और हर रात के अंधियारे में,प्यारे चंदा मामा जन्मे!!





बूंद-बूंद जल संचित करके,रखते इनको खुब सम्हाल!!
धरती जब तपती होती,जीवन होता जब बेहाल!
निर्झर झरनों सा बरसा कर,सारे जग को करते खुशहाल!!




नील गगन के क्या कहने,कभी नहीं इतराते है!
बिना किसी चाहत के दिल में,सबकी प्यास बुझाते है!!
लेश मात्र भी गर्व नहीं है,नहीं इसे गरिमा का भान!
आओ सीखे नील गगन से,और हम भी बन जाय महान!!




















---राजीव रंजन मिश्रा 




है सच्चा शाहंशाह वही

प्यार सभी को है अपनों से,
                     अपने शोहरत की है सबको चाह!
जीवन के पथ पर चलकर अपने,
                     सबने पाया है समुचित राह!!
दुनिया वालों की राह रोक कर,
                     सब अपना राह बनाते है!
लोगों से सब कुछ छीन- झपट कर,
                     अपना घर-बार सजाते है!!
कईयों का घर-द्वार तोरकर,
                     अपना महल बनाते है!
गैरों का दिल  बाग़ तोरकर,
                     वो अपना चमन खिलते है!!
ऐ नादाँ,जरा सोचो,
                     पशु पक्छी भी अपना पेट चलाते हैं!
इतना तो कम से कम ख्याल करो,
                      हम ही मानव क्यों कहलाते है!!
अपनी राहों के साथ साथ जो,
                      गैरों का राह बनाते है!
अपने धन को बाँट-बाँट कर,
                      जो निर्धन को धनी बनाते है!!
अपने भूख की परवाह छोरकर,
                      जो भूखों की भूख मिटाते हैं!
अपने गुलशन में फूल खीलाकर,
                      जो सारा संसार सजाते है!!
जीवन को आपने आदर्श बनाकर जो,
                      सारे जग को राह बतलाते!
अरे नादान!जरा सोचो,
                      क्या वो ही राम और कृष्ण नहीं कहलाते?


दुनियां की ख़ुशी की परवाह छोर,जिस फ़रिश्ते को कोई  चाह नहीं!
ईश्वर की गरिमामय सत्ता का,है सच्चा शाहंशाह वही!!
---राजीव रंजन मिश्रा
   २२/०६/१९९५

दिल को रखें कुछ इस कदर

दिल को रखें कुछ इस कदर ,
सोचो के साचें में ढालकर!
कोशिशें लाख की जाये मगर,
मन नाचे ना कोई सुर-ताल पर!
चोट खाए जिगर भले लाख गहरा,
हंस ना पाए कभी कोई अपनी सूरते-हाल पर!
जख्म तो भर ही जायेगा जालिम,
तालिमे-जख्म को रखें सम्हाल कर!
दिल में ख्वाईश का होना नहीं है बुरा,
गर हलकी लकीरें खिंची रहे गाल पर!
देने वाले ने सबको दिया है बराबर,
शिद्दत से अरमानो को रखें पाल कर!


----राजीव रंजन मिश्रा
    १६.०९.२०११ 


कभी दिल ने,कभी हमने

कभी दिल ने,कभी हमने,
हर-एक -बंधन को है तोऱा !
कभी जो बच भी निकला तो,
ज़माने ने नहीं छोऱा!
कभी  लरते रहे खुद से,
कभी खुदगर्ज लोगो से!
बरी कठिनाइयों से हमने,
हवा के रुख को है मोऱा !
चला था भीर में पैदल,
आ पहुँचा वीराने में !
रही हसरत की कुछ पा ल़ू,
निरा धुआं निकला, जो मैंने आसमां फ़ोऱा!



'सपना'

                      
पलकें मूंदे लेटा था मैं,जाग उठा जो देखा सपना!
सपने में कोई एक मुसाफिर,आया था बनकर अपना!!
दूर देश का सफ़र सुहाना था ,उसको तय करना!
पल भर का जो साथ रहा,भूल गया मैं सारा गम अपना!!
ख्वाबों के उस छनिक समय में,पाया है जो सुख मैंने!
शायद ही मयस्सर हो मुझको,अब इस निष्ठुर जीवन में!!
                                                      --राजीव रंजन मिश्रा
                                                        २७/१२/१९९४

ये राज भला मै खोलू क्या!

ऐ दोस्त! मेरे पुछु किस से,और भला बतलाऊ क्या ?
जीवन के इस अंध दौर में,कब, कैसे, किसको, कितना है मिला!
जब सोच-सोच थक हार के मै,बेहद कुंठित  हो जाता हू!
तब निज को संकोचित कर,नित रोज यही समझाता हूँ!
संभव हो जहा तक जीवन में,पर दोष कभी ना कदापि करु!
नित विवेक और संयम  से,निज राह पर बस मै चलता चलू!
ना छीन  झपट कर औरो का,जीवन में अपना पेट भरू!
क्यों सोच ग्रसित मै रहता हू,किस किस को सफाई देता फिरूँ!
ऐ काश! कि ये आसां होता,और मै ऐसा ही कर पाता! 
खुद में मशगुल  रहा करता,औरो  से मुझको लेना क्या!
क्षण-प्रति क्षण विचलित करता है,लोगों ने जो दिया है सिला!
किस दर्द में जीवन जीता हूँ,,ये राज भला मै खोलू क्या!
---राजीव रंजन मिश्रा
०३.१०.२०११

जब रात के अंधियारे में,खामोश फिजां हो जाता है!


जब रात के अंधियारे में,खामोश फिजां हो जाता है!
तब सोच पटल पर मानस के,यूँ अक्सर ही छा जाता है!
इस भाग दौर के बिच भला,तौले कब निज अंतर्मन को!
सोचे कुछ गहराई से,वो समय कहाँ  मिल पाता है!
 
हर  दिल के इक कोने से,आवाज कहीं से आती है!
ये भूल नहीं करना तुम,नित चेतन मन समझाता है!
पर दबा सदा उन बातों को,चंचल  चित से मनमानी कर!
जीवन के पथ पर ढीठ मनुज,निर्भय हो आगे बढ़ जाता है!
 
कुछ लोग धरा पर ऐसे है,जो सोच सतत चतुराई  से!
निज कर्मो का विश्लेषण कर,,कोई भूल नहीं दुहराता  है!
इस अमूल्य मानव तन का,सदुपयोग कर पूर्ण रूप से!
नित नव कीर्ति अलौकिक  कर, आदर्श बना जाता है!
 
---राजीव रंजन मिश्रा
०३.१०.२०११
यादो को उनके समेटकर हमने,
बंद मुट्ठी कर,
दिल के इक कोने में रख दिया!!
याद आना तो उनका, ना छुटा मगर,
पर यादों का सिलसिला,
जरुर कम हो गया!!
राजीव रंजन मिश्रा
०९.१०.२०११
यादो को उनके समेटकर हमने,
बंद मुट्ठी कर,
दिल के इक कोने में रख दिया!!
याद आना तो उनका, ना छुटा मगर,
पर यादों का सिलसिला,
जरुर कम हो गया!!
राजीव रंजन मिश्रा
०९.१०.२०११

वो जब भी याद आये तो,बस आते चले गए!

वो जब भी याद आये तो,बस आते चले गए!
दिल और जिगर पे बेइंतहा,छाते चले गए!!
हमने तो बेहद कोशिशे,कि मगर ऐ दोस्त!
क्या बताऊँ कि कैसे वो,दिल दुखाते चले गए!!

उफ़ किये बगैर ही,हरेक जुल्म सह लिया!
बेफिक्र हो कर बस वो, मुझको जलाते चले गए!!
मंजर-ऐ-आलम ये था कि सहना था दुस्सवार!
पर उनकी फितरत का क्या,जो सब से कतराते चले गए!!

हमने ना जाने कौन सा,है भूल कर दिया!
जिसकी सजा हम, उम्र भर उठाते चले गए!!
मिलती है बामुश्किले,जन्नत की पेशकश!
हम बार-बार उसको भी,ठुकराते चले गए!!

---राजीव रंजन मिश्रा
  ०९.१०.२०११




शायर दिल को पहचाने क्या!!

उठते है,कहाँ  से भाव-तरंग,
मिलते  है,कहाँ से उत्प्रेरण !
आते हैं, कहाँ  से  सोच नये!
ढलते है, कैसे सोचों में !!
कैसे,किस कारण,क्यों कर के!
लिख जाते,कागज के पन्नों पर!!
ये राज भला कोई जाने क्या!
शायर दिल को पहचाने क्या!!

यह क्षण-प्रतिक्षण,संयोजन है!
मन आवेशित,चिर वेदन है!!
जो भरा परा है, भावों  से!
वह मूर्त रूप,अन्वेषण है!!
हो चित्त-चिंतन से, पिरन जो!
वह शूल, भला कोई जाने क्या!!
ये राज भला कोई जाने क्या!
शायर दिल को पहचाने क्या!!

हो  सुबह,सुनहरी मतवाली!
या रात की चादर अंधियारी!!
मन झूम उठे, स्वंय हो  विह्वल!
खिल उठे हर-एक,क्यारी-क्यारी!
खिलते हों नव-नित, फूल जहाँ!
वो बाग़ भला कोई जाने क्या!!
ये राज भला कोई जाने क्या!
शायर दिल को पहचाने क्या!!

---राजीव रंजन मिश्र
१२.१०.२०११






दीपो का त्यौहार मनोहर,जगमग दीप जलाएँ!
आओ सब मिल निज प्रयास से,फैला अंधियार भगाएँ!!
हटा ह्रदय में छाए तम को,शुभ दीपावली मनाएं!
नव-स्फूर्ति,नव-चेतन मन से,आगे कदम बढ़ाएं!!
करते-करते ना जाने,वो क्या कर गये!
कहते-कहते ना जाने,वो क्या कह गये!
हमने तो उनको, कभी भी परखा नहीं पर!
जुल्मो-सितम उनके सारे,बाखुदा सह गये!!

संकल्प आ संचेतना


         संकल्प आ संचेतना
सरल भाव संचेतन मोन में,
फुटि रहल अछि  चिनगारी!
आंखि सुन्न भय देखि रहल अछि ,
मरजादा आर हया केर लाचारी!
मोन में दृढ संकल्पित भ कय,
तस्वीर बदलबा के  अछि !
नहि चाही आब ओ समाज,
जाहि में नारी कानति होईति!
जग में सुन्नर रूप दया केर,
स्नेहपूर्ण आ दुखियारी !
ममता केर दरिया सन बहि क,
किया सुखायल होइथि नारी!
निश्चल भ मानी एहि अटल सत्य के,
नारि सकल जगतक सृजनकारी!
तिरस्कृत,अपमानित आ प्रतारित भ,
लेती रूप संहारकारी!
बदलल दुनिया आ सोच बदलि गेल,
पुरुशहूँ टा जरुर बदलतय!
नारियो सबतरि सम्मानित होइथी,
हुन्कहूँ दशा सुधरते!
पर ध्यान रहै माता आ बहिन,
बदलै नहि नारि सुलभ लज्जा आ चिर-मर्यादित नारी!
बदलल जुग केर एहि परिपाटी में,ई जुग पुरान सच रहै जारी!
---राजीव रंजन मिश्र
०५/११/२०११.
आइल छी अवधारि क,किछु करबाक टा अछि!
रोरा त बड्ड अछि मुदा,नहि घबरैबाक अछि!!
संग जौं रहल सबहक,भ जैबे टा करतय!
मोन बेर-बेर कहति अछि ,ई होयबे टा करतय!!

नहि जानि कियाक,बड्ड असमंजस में परल छी!
कतय सँ आर कोना,कथी शुरू करी हम!!
आबु सब मिल बैसी,आर करी पुनर्विचार!
नव स्फूर्ति आर तेज़क,होबै पुनीत संचार!!

गत काल्हि तक जे कयलौं,ठीके छल सब ओहो!
जुनि परी अहि प्रपंच में,ई कियाक,ओना कियाक भेल!!
जे भेल,जे कयलौ सब ठीक,आगु डेग बढाबी!
दृढ संकल्पित भ फेर सँ,जन-गन के संग लाबी!!
संग्रामी अभिनन्दन के संगहि,संग्रामी एक शपथ ली!
पूर्वाग्रह के छोरि,निष्कपट भ,आबु किछु काज करी!!
किछु बदली हम सब,किछु समय बदलतय,आ सबटा भ जेतय!

मोन बेर-बेर कहति अछि,ई होयबे टा करतय!!
---राजीव रंजन मिश्रा
२५/१०/२०११


जीवन

जीवन ! तपतपाईत धरती पर,
अनवरत रूप सँ अंगार बरसईति!
स्वयं के शीतल करबाक प्रयास में,
लागल रहबाक खिस्सा !
कि यैह नहि थीक जीवन?
एक बूंद टा के आहट पाबि,
चौंकि कय पाबय के लालसा में दौरैत!
खसैत,सम्हरैत आ फेर उठैत,
अबाध रूप सँ चलैत रहबाक खिस्सा!
कि यैह नहि थीक जीवन?
भोरहि-भोर सूरजक किरण के संग उठब,
नब उमंग आ सोचक संग चलबाक खिस्सा!
सांझ परैत,डूबैत सूरजक संग,
सुख-दुःख के समेट,झमाईत,लटपटाईत,घर लौटबाक खिस्सा!
कि यैह नहि थीक जीवन?
एनाहीं चलैत,किछु पाबैत,किछु हराबैत,
खनहि हंसति,खनहि कनैति!
चिर निद्रा में चलि जैबाक खिस्सा!
कि यैह नहि थीक जीवन?
----राजीव रंजन मिश्र
०५/११/२०११